THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Friday, June 7, 2013

ईको सेंसिटिव जोन के रूप में एक नया अभिशाप

ईको सेंसिटिव जोन के रूप में एक नया अभिशाप

eco-sensitive-zoneइस समय राज्य में इको सेन्सिटिव जोन का मुद्दा सबसे चर्चित है। एक ओर बिनसर, राजाजी, कार्बेट, मसूरी और केदारनाथ सहित लगभग सभी संरक्षित क्षेत्रों के लोग फरवरी माह से प्रदर्शन, घेराव और ज्ञापन के माध्यम से इसके विरोध में आन्दोलनरत हैं वहीं अब सरकार भी इसके विरोध में खड़ी दिखायी दे रही है। जबकि उत्तरकाशी में कुछ सामाजिक कार्यकर्ता व अपने आपको जन आन्दोलन मानने वाला गंगा आह्नान भी इको सेन्सिटिव जोन के पक्ष में पैरवी कर रहा है।

वन्य जीव संरक्षण अधिनियम के अन्तर्गत गठित भारतीय वन्य जीव परिषद की 2002 की बैठक मे वन्य जीव संरक्षण रणनीति 2002 स्वीकृत की गयी थी और इसके तहत प्रत्येक राज्य सरकार को पार्क और सैन्चुरी के 10 किमी. के क्षेत्र को इको सेन्सिटिव जोन घोषित करना था। राज्य सरकारों द्वारा इस योजना का विरोध इस आधार पर किया गया कि इससे पार्क के बाहर की बसासत में विकास की गतिविधियाँ बाधित हो जायेंगी। वर्ष 2005 की बोर्ड बैठक मे तय किया गया कि इको सेन्सिटिव जोन इलाके की पारिस्थितियों के अनूकूल निर्मित किया जाये अर्थात 10 किमी. की शर्त मे शिथिलता राज्य सरकारें दे सकती थी।

वर्ष 2004 मे गोआ फाउण्डेशन द्वारा इस सम्बध में सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गयी थी जिसके अनुपालन में सुप्रीम कोर्ट द्वारा वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को निदेर्शित किया गया था कि वह चार सप्ताह के भीतर राज्य सरकारों से इको सेन्सिटिव जोन के प्रस्ताव प्राप्त करे। 2010 में पुनः सुप्रीम कोर्ट द्वारा ओखला वर्ड सैन्चुरी के भीतर निर्माण के सम्बन्ध में दायर याचिका में इस मामले में निर्देश दिये गये जिसके पश्चात वन एवं पर्यावरण मंत्रालय द्वारा प्रणवसेन की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया गया। इस कमेटी की सिफारिशों के आधार पर इको सेन्सिटिव जोन में तीन तरह की गतिविधियाँ चिन्हित की गयी। 1. प्रतिबंधित 2. शर्तो के साथ अनुमन्य 3. बिना शर्तो के साथ अनुमन्य।

प्रतिबंधित क्षेत्र के लिये एक महायोजना निर्मित किये जाने का भी प्राविधान किया गया जिसमें वन्य जीव वार्डन, एक पर्यावरणविद, स्थानीय स्वशासन से एक व्यक्ति और राजस्व विभाग से एक अधिकारी को मिलकर इस योजना का निर्माण करने के लिये निर्देशित किया गया। महायोजना में क्षेत्र में चलने वाली समस्त गतिविधियों को उपरोक्त तीन भागों मे बाँटना था और भविष्य में इको सेन्सिटिव जोन घोषित किये गये क्षेत्र का संचालन इसी आधार पर किया जाना था।

पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 केन्द्र सरकार को यह शक्ति देता है कि वह किसी भी क्षेत्र की पारिस्थिति को बनाये रखने के लिये उसे पारिस्थितिक संवेदनशील क्षेत्र घोषित कर सके। इसी शक्ति का प्रयोग करते हुए गोमुख से उत्तरकाशी तक भागीरथी नदी के लगभग 100 किमी. लम्बे 41,179.59 वर्ग किमी. के सम्पूर्ण जल संभरण क्षेत्र को इको सेन्सिटिव जोन घोषित करा जा चुका है। अगले दो वर्षों के भीतर इस क्षेत्र के लिये राज्य सरकार को एक महायोजना बनानी होगी जो कि स्थानीय जनता विशेषकर महिलाओं के परामर्श तथा सरकारी विभागों की भागीदारी और भारत सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के अनुमोदन के पश्चात लागू होगी। इस योजना में क्या-क्या प्राविधान किये गये हैं, उन्हें समझना जरूरी है।

इस योजना में बंजर क्षेत्र की बहाली, जल निकायों के संरक्षण, भूमिगत जल प्रबंधन सहित पर्यावरण के अन्य पहलुओं पर भी ध्यान दिया जायेगा। नदियों के किनारे किसी तरह के निर्माण पर प्रतिबंध होगा। साथ ही ग्रामीण बस्तियों समेत वन, कृषि, हरित क्षेत्र, बागान, झील आदि को भी चिन्हित किया जायेगा। होटल, रिसॉर्ट के निर्माण में परम्पराओं का ध्यान रखा जायेगा। विकास की कोई भी योजना पारिस्थिति के अनूकूल होने पर ही लागू होगी, पैदल मार्गो को प्रोत्साहित किया जायेगा। कृषि भूमि के भू-उपयोग को प्रोत्साहित किया जायेगा। आवास के लिये कृषि भूमि के भू-उपयोग में बदलाव राज्य सरकार की सिफारिश और केन्द्र सरकार की अनुमति के बाद ही किया जा सकेगा। साथ ही 5000 से अधिक जनसंख्या वाले क्षेत्रों में क्षेत्र विकास योजना बनानी होगी। हरित क्षेत्र जैसे कि वन या कृषि क्षेत्र को किसी दूसरे उपयोग में नहीं लाया जा सकेगा। 20 डिग्री से अधिक तीव्र पहाड़ी ढलान वाले क्षेत्र में किसी भी विकास कार्य की अनुमति नहीं होगी। ऐसे क्षेत्रों से भू-कटाव को रोकने के लिये विशेष प्रयास किये जायेंगे। पर्यटन क्रिया-कलापों के लिये भी पर्यटन विभाग द्वारा पर्यटन महायोजना बनानी होगी। जिसमें क्षेत्र की धारक क्षमता का ध्यान रखना होगा। निर्माण सहित सभी पर्यटन गतिविधियाँ इसी महायोजना में चिन्हित होंगी। आंचलिक महायोजना में शामिल हुए बगैर 5 किमी. से अधिक कच्ची पर पक्की सड़कों का निर्माण नहीं हो पायेगा। वर्तमान सड़कों के चौड़ीकरण को भी महायोजना में शामिल करना होगा। सड़क के कटान के कारण होने वाले प्रारम्भिक क्षति का उपचार किया जायेगा तथा मलवे के निस्तारण की ब्यवस्था की जायेगी। प्राकृतिक और मानव निर्मित दोनों ही प्राकृतिक स्थलों के नजदीक निर्माण कार्यो पर रोक लगायी जायेगी।

गौमुख से उत्तरकाशी तक भागीरथी नदी और सभी उपनदियों पर नये जल विद्युत संयंत्रों के निर्माण पूर्व जल संयंत्रों का विस्तार पर रोक/सूक्ष्म या लघु जल विद्युत परियोजना जिससे स्थानीय समाज की ऊर्जा की जरूरतें पूरी हो सकें ग्रामसभा की अनुमति के पश्चात निर्मित की जा सकती हंै। साथ ही नदी के जल को औद्योगिक प्रयोजनों के लिये उपयोग नहीं किया जा सकता है। वास्तविक निवासियों के आवश्यक घरेलू उपयोग को छोड़कर किसी भी प्रकार के खनिज के खनन पर रोक। 20 डिग्री से अधिक ढलान पर स्थानीय जरूरतों पर भी रोक। पेड़ों की वाणिज्यिक कटाई तथा काष्ठ आधारित उद्योगों पर रोक होगी। ग्राम सभा की अनुमति के पश्चात ही जलाने के लिये लकड़ी एक़त्र करी जा सकती है। प्रदूषणकारी उद्योगों पर रोक तथा बगैर शोधन के मल .और जल के औद्योगिक बहाव पर रोक, प्लास्टिक के थैलों पर रोक।

इको सेन्सिटिव जोन में निम्न गतिविधियों को विनियमित किया जायेगा- केवल भूमि के वास्तविक मालिक द्वारा ही भूमिगत जल का उपयोग कृषि और वास्तविक घरेलू जरूरतों के लिये किया जा सकता है। भूमिगत जल की बिक्री नहीं की जा सकती। कृषि समेत जल के सभी प्रदूषण रोकने होंगे। सभी प्रकार की भूमि पर जिसमें कृषि भूमि भी शामिल है, पेड़ों की कटाई पर पूर्णतया रोक होगी और यदि आवश्यक हो तो वन भूमि पर जिलाधिकारी तथा अन्य भूमि पर राज्य सरकार द्वारा बनाये गये नियमों के पश्चात ही अनुमति मिल सकती है। रक्षा स्थापनों और राष्ट्रीय सुरक्षा से सम्बन्धित ढाँचागत विकास, चीड़ पेड़ों का रोपण, विशेष प्रजातियों का रोपण, होटल रिसाॅर्ट निर्माण, विद्युत केवल, कृषि प्रणाली में तीव्र परिवर्तन, साइनबोर्ड और होल्डिंग ये सभी गतिविधियाँ विनियमित की जायेंगी। ध्वनि, वायु, सीवर आदि के लिये लागू नियम-कानूनों का पालन और वर्तमान में जारी जल विद्युत परियोजनाओं को पर्यावरणीय नियमों का पालन एवं सोशियल आॅडिट कराना होगा। यातायात सहित गंगोत्री और गौमुख के बीच पर्वतारोहण को विनियमित किया जायेगा।

इको सेन्सिटिव जोन में निम्न गतिविधियाँ प्रोत्साहित की जायेंगी-

वर्षा जल एकत्रीकरण, जैविक खेती, हरित प्रोद्योगिकी, भ्रमण पर्यटन, सूक्ष्म जल परियोजनायें और उर्जा सहित स्थानीय जैव संसाधनों पर आधारित उद्योग। इन नियमों को लागू करने के लिये एक मानिटरिंगं कमेटी का गठन किया जायेगा जिसमें गैर सरकारी संगठनों के दो प्रतिनिधियों समेत दस सदस्य हांेगे और इसका अध्यक्ष प्रबंधकीय या प्रशासकीय अनुभव वाला ब्यक्ति होगा। मानिटरिंग कमेटी वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के निर्देशों के तहत कार्य करेगी। उत्तराखण्ड की सरकारें इसके लगभग 24 प्रतिशत भू-भूभाग को पहले ही प्रतिबंधित की श्रेणी मे ला चुकी है। इसका अर्थ है कि इस क्षेत्र में किसी भी प्रकार की विकास या स्थानीय निवासियों के अधिकारों से जुड़ी हुई गतिविधियाँ प्रतिबंधित रहेंगी।

इस क्रम में उत्तरकाशी का विश्लेषण दिलचस्प होगा। उत्तरकाशी का कुल क्षेत्रफल 7,95,100 हैक्टेयर है। इसमें से 3,34,700 हैक्टेयर को पूर्व में ही संरक्षित क्षेत्र घोषित किया जा चुका है। वर्तमान इको सेन्सिटिव जोन का क्षेत्रफल 4,17,959 है। इसमें गंगोत्री और गोविन्द पशु बिहार का कुछ क्षेत्र भी शामिल है। अनुमान्तः कुल भू-भाग का 80 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र संरक्षण के दायरे में आ चुका है। जबकि कृषि भूमि 27,714 हैक्टेयर जो लगभग 3.5 प्रतिशत है। इन आँकड़ों की तुलना यदि हरिद्वार से की जाये तो वहाँ का क्षेत्रफल 2,33,506 हैक्टेयर है जबकि कृषि भूमि 1,24,486 हैक्टेयर यानी आधे से अधिक क्षेत्रफल में खेती की जा रही है।

जिस तेजी से पर्वतीय क्षेत्र में भूमि को संरक्षित क्षेत्र मे बदला जा रहा है, भविष्य में यहाँ जीवन-यापन का आधार आखिर क्या होगा? संरक्षित क्षेत्र चाहे वह अस्कोट हो या बिनसर, राजाजी हो या केदारनाथ सभी जगह लोग अपने अधिकारों को लेकर संघर्षरत हैं परन्तु इन क्षेत्रों में अधिकारों की बहाली के बजाय इको सेन्सिटिव जोन के नाम पर संरक्षित क्षेत्र बढ़ाने की कवायद जारी है।

उत्तरकाशी में इको सेन्सिटिव जोन के लिये बनी योजना एक नजर में बेहद आकर्षक और पर्यावरण के हितैषी के रूप मे दिखायी देती है परन्तु इसके भीतर स्थानीय निवासियों के लिये कई अवरोध भी छुपे हुए हैं। योजना वन एवं कृषि भूमि में किसी भी बदलाव को प्रतिबंधित करती है। अर्थात कृषि के अतिरिक्त अन्य किसी विकास की सम्भावनाओं के द्वार बन्द और कृषि में भी सिर्फ परम्परागत तरीकों का ही पालन करना होगा। किसी बड़े बदलाव या तकनीकी के माध्यम से कृषि मे परिवर्तन प्रतिबंधित किया गया है। उर्वरक और कीटनाशकों का उपयोग भी प्रतिबंधित होगा। पहले से ही वन अधिनियम 1980 की मार झेल रही सड़कों के दायरे में अब 5 किमी. से अधिक की कच्ची-पक्की सभी सड़कें आयेंगी, पूर्व में निर्मित सड़कों के चौड़ीकरण के लिये भी अनुमति लेनी होगी। पेड़ों की कटाई और काष्ठ उद्योगों को भी यह योजना प्रतिबंधित करती है तो नये निर्माण भी शर्तो के साथ ही किये जा सकते है। अर्थात नियम-कानूनों के जाल में उलझी हुई आम जनता को और नये नियमों में बाँधने की पूरी तैयारी कर ली गयी है। पर सिक्के के दूसरे पहलू के रूप में आम जनता के परम्परागत अधिकारों पर यह योजना बिल्कुल खामोश है। गंगा आह्नान द्वारा इस योजना के ड्राफ्ट पर परम्परागत अधिकारों पर दिये गये सुझाव को नकार दिया गया।

योजना में बड़े बाँधों और जल विद्युत परियोजनाओं पर रोक, व्यवसायिक खनन पर रोक भी अत्यन्त आवश्यकीय है। गंगा की धारा अविरल रहनी चाहिये इस पर भी किसी को एतराज नहीं होगा। टिहरी बाँध के समय से ही उत्तराखण्ड की जनता इन सबका विरोध करती रही है। राज्य बनने के बाद चला नदी बचाओ आन्दोलन इसका प्रमाण है। पर इतने प्रतिबंधों के बाद लोग इको सैन्सेटिव जोन के भीतर जीवन-यापन कर पायेंगे यह एक यक्ष-प्रश्न है। जिन जंगलों पर इनका जीवन-यापन टिका हुआ है उनसे उन्हें दूर कर दिया जाये और दूसरी ओर विकास के भी सभी द्वार बन्द कर दिये जायें तो पलायन के अतिरिक्त क्या कोई और रास्ता बचता है?

मुख्यमंत्री ने जितनी सक्रियता उत्तरकाशी को इको सेन्सिटिव जोन से हटाने के लिये दिखायी है उतनी ही सक्रियता से वे अन्य प्रतिबंधित क्षेत्रों में लागू होने वाले इको सेन्सिटिव जोन के पक्ष मे क्यों नहीं उतरे ? क्या यह सारी कवायद जल विद्युत परियोजना चला रही कम्पनियों के हित में की जा रही है। अगर उन्हें वास्तव में लोगों की चिन्ता होती तो वे केन्द्र द्वारा पारित वन अधिकार कानून को राज्य में लागू करते जो लोगों के अधिकारों और जीवन-यापन की ब्यापक सम्भावनाओं के द्वार खोलता है। इसी तरह कार्बेट पार्क के दो किमी. के इलाके में जमीनों के क्रय-विक्रय पर लगाई गयी रोक भी इसी सरकार की देन है। पवलगढ़ और नन्धौर को प्रतिबंधित क्षेत्र भी इसी सरकार के द्वारा किया गया है। वन्य जीव संरक्षण अधिनियम में स्पष्ट प्रावधान होने के बावजूद गोविन्द पशु बिहार हो या बिनसर सभी प्रतिबंधित क्षेत्रों में समर्थ लोगों द्वारा कानून को धता बताकर जमीनों की खरीद-फरोख्त और निर्माण कार्य जारी है जबकि स्थानीय निवासी अपने घरों की छतों को भी ठीक नहीं करा सकते। कानूनन परम्परागत हक बहाल होने के बावजूद बिनसर के लोग 25 वर्षों के लम्बे संघर्ष के बाद सिर्फ तीन गाँवों में टिम्बर का हक प्राप्त कर पाये, अन्य संरक्षित क्षेत्रों में तो यह हक समाप्त ही हो चुका है। इको सेन्सिटिव जोन में भी यही कहानी दोहरायी जायेगी कि समर्थ लोगों पर कोई रोक नहीं होगी और आम जनता कानूनों के शिकन्जे में पिसेगी।

राज्य की जनता के साथ अगर यह सरकार वास्तव में न्याय करना चाहती है तो उसे केन्द्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट के सामने लोगों के अधिकारों की पैरवी करनी होगी तथा यह सवाल पूछना होगा कि पहले से ही राष्ट्रीय औसत से पाँच गुना अधिक संरक्षित क्षेत्र वाले राज्य में और कितना क्षेत्र संरक्षित किया जायेगा, इसकी कोई सीमा तो तय की ही जानी चाहिये। राज्य में लागू वृक्ष संरक्षण अधिनियम जैसे कानूनों को रद्द करना होगा तथा वन पंचायतों को वन अधिकार कानून के दायरे में लाते हए वन-वासियों के अधिकारों को लागू करना होगा। 1000 मीटर से ऊपर हरे वृक्षों के कटान पर रोक के आदेश को चीड़ के सम्बन्ध मे शिथिल करवाना होगा। यदि यह सब नहीं होता है तो संरक्षित क्षेत्र के लोगों के पास पलायन के अतिरिक्त अन्य कोई रास्ता नहीं होगा।

http://www.nainitalsamachar.in/eco-sensitive-zone-and-problems-of-villagers/

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