आदिवासियों का उलगुलान
आदिवासियों के संघर्ष का इतिहास यह बताता है कि इनका संघर्ष ही प्रकृतिक संसाधनों - जल, जंगल, जमीन, खनिज और पहाड़ को बचाने के लिए है। चाहे यह संघर्ष आजादी से पहले अंग्रेजों के खिलाफ हो या वर्तमान शासको के विरूद्ध। वे यह समझ चुके हैं कि प्रकृति में ही उनका अस्तित्व है इसलिए वे अपने संघर्ष से प्रकृति और स्वयं को बचाना चाहते हैं। भगवान बिरसा मुंडा ने उलगुलान से यही संदेश दिया था कि ''उलगुलान का अंत नहीं''। वे यह जानते थे कि आदिवासियों से उनका संसाधन लूटा जायेगा इसलिए उलगुलान ही उसका जवाब है।
25 मई, 2013 को छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले में कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा में हमला कर 27 लोगों की हत्या के बाद केन्द्र सरकार यह कह रही है कि नक्सलवाद देश का सबसे बड़ा समस्या है। देश की मीडिया इस मुद्दे पर लगातार बहस करवा रही है। कुछ विशेषज्ञ यह कह रहे हैं कि लालगलियारा में थलसेना और वायुसेना उतारकर नक्सलियों को खत्म कर दिया जाये वहीं कुछ का मत है कि नक्सलियों के साथ वार्ता करना चाहिए। चर्चा यह भी हो रही है कि आदिवासियों पर अन्याय, अत्याचार एवं उनके संसाधनों को लूटकर काॅरपोरेट घरानों को सौंपने की वजह से ही यह समस्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। यहां सबसे आश्चार्यजनक बात यह है कि पूरे चर्चा में कहंीं भी आदिवासी दिखाई नहीं देते हैं। ऐसा लगता है मानो इस देश में आदिवासियों को बोलने की आजादी ही नहीं है। चूंकि समस्या आदिवासियों से जुड़ी हुई है इसलिए उनके सहभागिता के बगैर क्या इसका हल हो सकता है? लेकिन यहां पहले यह तय करना होगा कि देश का सबसे बड़ा समस्या नक्सली हैं या आदिवासी?
यहां यह समझना जरूरी होगा कि प्राकृतिक संसाधनों पर अपना अधिकार को लेकर आदिवासी लोग विगत 300 वर्षों से संघर्ष कर रहे हैं जबकि नक्सलवाद पिछले 4 दशकों की देन है। आदिवासी योद्धा बाबा तिलका मांझी ने अंग्रेजों से कहा था कि जब जंगल और जमीन भागवान ने हमें वारदान में दिया है तो हम सरकार को राजस्व क्यों दे? लेकिन अंगे्रजी शासको ने उनकी एक नहीं सुनी। फलस्वरूप, आदिवासी और अंग्रेजी शासकों के बीच संघर्ष हुआ। 13 जनवरी, 1784 को बाबा तिलका मांझी ने भागलपुर के कलक्टर ऑगस्ट क्लीवलैंड की तीर मारकर हत्या कर दी वहीं अंग्रेजी सैनिकों ने भी आदिवासियों की हत्या की। अंतः अंग्रेजी सैनिकों ने बाबा तिलका मांझी को भी पाकड़ कर चार घोड़ों के बीच बांध दिया और फिल्मी शैली में भागलपुर ले जाकर हजारों की तदाद में इक्टठी हुई भीड़ के सामने आम जनता में भय पैदा करने के लिए बरगद के पेड़ में फांसी पर लटका दिया। लेकिन आदिवासी जनता उनसे डरी नहीं और लगातार संघर्ष चलता रहा, जिसमें संताल हुल, कोल्ह विद्रोह, बिरसा उलगुलान प्रमुख हैं। फलस्वरूप, अंग्रेज भी आदिवासी क्षेत्रों पर कब्जा नहीं कर सके और उन्हें आदिवासियों की जमीन, पारंपरिक शासन व्यवस्था एवं संस्कृति की रक्षा हेतु कानून बनाना पड़ा।
लेकिन आजादी के बाद भारत सरकार ने इसे कोई सबक नहीं लिया। आदिवासियों के मुद्दों को समझने की कोशिश तो दूर, देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू एवं गृहमंत्री सरदार बल्लभभाई पटेल ने एक षडयंत्र के तहत आदिवासी क्षेत्रों को आजाद भारत का हिस्सा बना लिया जबकि आदिवासी अपने क्षेत्रों को ही देश का दर्जा देते रहे हैं जैसे कि संताल दिशुम, मुंडा दिशुम या हो लैंड, इत्यादि। नेहरू ने तो आदिवासियों को यहां तक कह दिया था कि अगर आप तड़ रहे हैं तो देश के हित में तड़पो यानी अपनी जमीन, जंगल, खानिज, नदियों और पहाड़ों को हमें दे दो और देशहित के नाम पर तड़तड़ कर मर जाओ। आजादी से अबतक आदिवासियों के बारे में बार-बार यही कहा जाता रहा है कि उन्हें देश की मुख्यधारा में लाना है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि देश का बहुसंख्यक आबादी आदिवासियों को जंगली, अनपढ़ एवं असभ्य व्यक्ति से ज्यादा स्वीकार करने के लिए तैयार ही नहीं है और अब उन्हें नक्सली कहा जा रहा है। वहीं तथाकथित मुख्यधारा में शामिल करने के नाम पर आदिवासियों को उनकी भाषा, संस्कृति, पारंपरा, पहचान, अस्मिता और प्रकृतिक संसाधनों से बेदखल किया जा रहा हैं और उनका समतामूलक सभ्यता विनाश की दिशा में है इसलिए वे खूद को बचाने के लिए नक्सलियों की ओर रूख कर रहे हैं क्योंकि उन्हें यह लगने लगा है कि आधुनिक हथियारों से लैश भारतीय सैनिकों से वे तीन-धनुष के बल पर लड़ नहीं पायेंगे।
नक्सलवाद की उपज जमींदारों और खेतिहरों के बीच फसल के बांटवारे को लेकर हुई या यांे कहें कि भूमि सुधार इसके केन्द्र था याने जो जमीन को जोते वहीं जमीन का मालिक हो। आजादी का भी सबसे बड़ा वादा भूमि सुधार ही था लेकिन आज की तरीख में भूमि सुधार सरकार और नक्सली दोनों के एजेंडा से बाहर हो चुका है। अब दोनों की नजर प्रकृतिक संसाधनों पर टिकी हुई है, जो देश के मानचित्र को देखने से स्पष्ट होता है कि यह वही क्षेत्र है जो आदिवासी बहुल है, प्राकृतिक संसाधनों से भरा पड़ा है और यह लाल गलियारा भी कहलाता है। सरकार चाहती है कि आदिवासी गलियारा को लाल गलियारा बताकर खाली कर दिया जाये। उन्होंने इसके लिए 2 लाख अर्द्धसैनिक बलों को लगा रखा है और पूरी तैयारी चल रही है कि इसे कैसे औद्योगिक गलियारा बनाया जाये।
देश के प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने 2009 में संसद में यह कहा था कि खनिज सम्पदाओं से भरा क्षेत्र में नक्सलवाद के विस्तार से पूंजीनिवेश प्रभावित हो सकता है। 1990 के दशक में नक्सलवाद दलितों तक सीमित था क्योंकि उच्च जाति के लोग दलितों पर अमानवीय अत्याचार करते थे। लेकिन आर्थिक उदारीकरण के बाद देश में विदेशी पूंजीनिवेश बढ़ता गया और नक्सलवाद दलित बस्तियों से निकलकर आदिवासियों के गांवों में पहुंच गया। इसी बीच झारखण्ड एवं छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों की स्थापना हुई जहां देश का आकूत खनिज संपदा मौजूद है। इन राज्यों की सरकारों ने औद्योगिक घरानों के साथ एम.ओ.यू. की झड़ी लगा दी है लेकिन आदिवासी समाज के बीच मानव संसाधन का विकास नहीं किया। फलस्वरूप, औद्योगिकरण आदिवासियों के विनाश का कारण बनता जा रहा है इसलिए वे इसका पूरजोर विरोध कर रहे हैं लेकिन राज्य सरकारों को इसे कोई फर्क नहीं पड़ा है। औद्योगिक नीति 2012 में झारखण्ड सरकार ने कोडरमा से बहरागोड़ा एवं रांची से पतरातू तक फोर लेन सड़क के दोनों तरह 25-25 किलो मीटर की जमीन अधिग्रहण कर औद्योगिक गलियारा बनाने का प्रस्ताव किया है। लेकिन इस क्षेत्र के आदिवासी लोग कहां जायेंगे? इसी तरह छत्तीसगढ़ एवं ओडिसा की सरकारों ने विदेशी पूंजीनिवेश के बल पर खूद को आर्थिक रूप से उभरता राज्य घोषित कर दिया है।
अगर झारखण्ड, छत्तीसगढ़ एवं ओडिसा को देखा जाये तो नक्सलवाद की वजह से आदिवासी समाज को भारी क्षति हो रही है। झारखण्ड में 6,000 निर्दोष आदिवासियों को नक्सली होने के आरोप में विभिन्न जेलों में बंद कर दिया गया है, वहीं छत्तीसगढ़ में 2,000 एवं ओडिसा में 2,000 निर्दोष लोग जेलों में हैं। इसी तरह लगभग 1,000 लोग फर्जी मुठभेड़ में मारे गए है एवं 500 महिलाओं साथ सुरक्षा बलों ने बलात्कार किया है। वहीं 1,000 लोगों को पुलिस मुखबिर होने के आरोप में नक्सलियों मार गिराया है और हजारों की संख्या में आम ग्रामीणों को नक्सलियों ने मौत के घाट उतार दिया है। कुल मिलकर कहें तो दोनों तरफ से आदिवासियों की ही हत्या हो रही है और उनका जीवन तबाह हो रहा है। यहां यह भी चर्चा करना जरूरी होगा कि बंदूक की नोक पर नक्सलियों को खाना खिलाने, पानी पिलाने व शरण देने वाले आदिवासियों पर सुरक्षा बल लगातार अत्याचार कर रहे हैं लेकिन अपना व्यापार चलाने के लिए नक्सलियों को लाखों रूपये, गोला-बारूद और अन्य जरूरी समान देने वाले औधोगिक घरानों पर कोई कानूनी कार्रवाई नहीं होती है। राज्य का दोहरा चरित्र क्यों?
देश में आदिवासियों के संवैधानिक, कानूनी एवं पारंपरिक अधिकारों का घोर उल्लंघन हुआ है। पांचवी अनुसूची के प्रावधान राज्यों में लागू नहीं है। वहीं आदिवासियों की जमीन बचाने हेतु बनाये गये कानूनों को लागू नहीं किया गया, जो न सिर्फ बिरसा मुण्डा और अन्य वीर शहीदों का आपमान है बल्कि भारतीय संविधान एवं उच्च न्यायालय का आवमानना भी है, क्योंकि यह कानून संविधान के भाग-9 में शामिल किया गया है एवं उच्च न्यायालन इसे सख्ती से लागू करने का आदेश दिया था। इसके साथ ट्राईबल सब-प्लान का पैसा भी दूसरे मदों में खर्च किया जा रहा हैै जो आदिवासी हक को लूटने जैसा है। आदिवासियों की इस हालत के लिए उनके जनप्रतिनिधि ही सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं, जिन्होंने कभी भी ईमानदारी से उनके सवालों को विधानसभा एवं संसद में नहीं उठाया। फलस्वरूप, आज नक्सलवाद देश का सबसे बड़ा समस्या बन गया है लेकिन आदिवासियों की समस्या कभी भी देश की समस्या नहीं बन सकी बल्कि आदिवासियों को ही तथाकथित मुख्यधारा का समस्या मान लिया गया है क्योंकि वे ही प्रकृतिक संसाधनों को पूंजीपतियों को सौंपना नहीं चाहते हैं और यही देश का सबसे बड़ा समस्या है।
नक्सलवाद और आदिवासियों के समस्याओं का तीन हल हो सकते है। पहला, उनके संसाधनों को न लूटा जाये, उनके बीच मानव संसाधन का बड़े पैमाने पर विकास हो, उनके बजट का हिस्सा ईमानदारी से उनके लिए खर्च किया जाये, संवैधानिक प्रावधान व कानून लागू किये जाए एवं सबसे जरूरी यह है कि उन्हें बराबरी का दर्जा देकर आदिवासी दर्शन पर आधारित विकास प्रक्रियाओं को आगे बढ़़ाया जाये। दूसरा समाधान यह है कि आदिवासियों को एक साथ खड़ा करके गोली मार दी जाये या जेलों में बंद कर दिया जाये जबकि तीसरा रास्ता यह है कि प्रकृतिक संसाधनों को जल्द से जल्द खत्म कर दिया जाये क्योंकि जब तक आदिवासी जिन्दा रहेंगे वे अपने संसाधनों को असानी से लुटने नहीं देंगे। इसलिए देश का सबसे बड़ा समस्या आदिवासी हैं नक्सलवाद तो सिर्फ एक बहाना है।
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