झारखण्ड: बलात्कार खंड
विगत वर्ष दिल्ली में हुए दामिनी बलात्कार कांड के बाद देश में जिस तरह से बलात्कार के खिलाफ उबाल आया था मानो ऐसा लग रहा था कि अब सब कुछ बदल जायेगा और महिलाएं अपने घरों, पड़ोस एवं देश में सुरक्षित महसूस करेंगी। महिलाओं के खिलाफ बढ़ रहे हिंसा को रोकने के लिए केन्द्र सरकार ने भी कठोर ऑर्डिनेशन बनाया। लेकिन बलात्कार के बाद हत्या करने का सिलसिला रूकने का नाम ही नहीं ले रहा है। अब तो ऐसा लगता है मानो देश की राजधानी दिल्ली से बलात्कार की ट्रेन झारखण्ड की राजधानी रांची एवं राज्य के अलग-अलग हिस्सों में घुम रही है। दरिंदे छोटी-छोटी बच्चियों को भी अपने हवस का शिकार बनाने से नहीं हिचक रहे हैं। दूसरी ओर लोग भी अपना गुस्सा पुलिस पर ही उतार रहे हैं। यह सही है कि कुछ मामलों में पुलिस की लापरवाही की वहज से बच्चियों की हत्या तक कर दी गई लेकिन सवाल है क्या पुलिस कार्रवाई ही काफी है?
भारतीय समाज में महिलाओं को आजतक एक इंसान के रूप में आदमी के बराबर का दर्जा नहीं दिया गया अपितु उसे उपभोग की वस्तु बना दिया गया इसलिए अधिकांश पुरूष लोग जब भी किसी महिला या लड़की को देखते हैं तो उसका उपभोग करने की फिराक में लगे रहते हैं और जब वे महिलाओं या जवान लड़कियों को अपना शिकार नहीं बना पाते हैं तो निरीह बच्चियों को निशाना बनाते हैं। इस तरह से बलात्कार की घटनाएं बढ़ती चली जाती हैं। बलात्कार महिला हिंसा का सबसे भयावह रूप है, जो महिलाओं से उनके संवैधानिक प्रदत आत्म-सम्मान से जीवन जीने का हक छिन लेती है। सरकार का आंकड़ा दर्शाता है कि झारखण्ड में 2001 से 2010 तक बलात्कार के 7563 मामले दर्ज किये गये हैं, जिसमें से बलात्कार पीडि़ता ने 6056 मामलों में आरोपियों की पहचान की हैं। बलात्कार के 6056 मामलों में से 321 मामलों में परिवार के सदस्या आरोपी हैं, 545 मामलों में संबंधी, 2108 मामालों में पड़ोसी एवं 3082 मामलों में अन्य लोग शामिल हैं।
झारखण्ड में बलात्कार के आंकड़े काफी चौंकाने वाले हैं। इसमें सबसे ज्यादा चकित करने वाली बात यह है कि महिलाएं एवं विशेषकर लड़कियां अपने ही घरों में सुरक्षित नहीं हैं। इसके साथ-साथ संबंधी, पड़ोसी एवं अन्य परिवेश में बिल्कुल भी सुरक्षित नहीं हैं। राज्य में बलात्कार के 5.3 प्रतिशत मामलों में परिवार के सदस्य शामिल हैं। इसी तरह बलात्कार के 9 प्रतिशत मामलों में पीडि़ता के संबंधियों को आरोपी बनाया गया है जबकि बलात्कार के 34.8 मामलों में पीडि़ता के पड़ोसियों ने उनके साथ बलात्कार किया। ये ऑकड़ें स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं कि झारखण्ड में महिला एवं लड़कियों को अन्य लोगों की अपेक्षा अपने ही घर के सदस्य, संबंधी एवं पड़ोसियों से ज्यादा खतरा हैं। सवाल यह उठता है कि अगर महिलाएं अपने घरों, संबंधियों के घरों एवं पड़ोस में सुरक्षित नहीं हैं तो क्या उनके लिए अलग से दुनिया बनाया जायेगा तब वे सुरक्षित होंगे? यह सवाल सरकार से ज्यादा समाज के मुंह पर लिए तमाचा माने की तरह है।
बलात्कार के मामलों को उम्र के आधार पर देखा जाये तो यह स्पष्ट होता हैं कि कोई भी बच्ची, लड़की एवं महिल सुरक्षित नहीं हैं। वर्ष 2001 से 2010 तक झारखण्ड में 7563 महिलाओं को बलात्कार का शिकार होना पड़ा है। इसी तरह पूरे देश में 190170 महिलाएं बलात्कार की शिकार हुई हैं। वर्ष 2001 से 2010 तक झारखण्ड में 10 वर्ष से कम की उम्र के 22 बच्चियों के साथ बलात्कार किया गया। इसी तरह 10 से 14 वर्ष के बीच 78 बच्चियों से बलात्कार किया गया, 14 से 18 वर्ष के बीच 328 लड़कियां, 18 से 30 वर्ष के बीच 5638, 30 से 50 वर्ष के बीच 1487 एवं 50 वर्ष से उपर 10 महिलाएं बलात्कार की शिकार हुई।
बलात्कार पीडि़तों का विश्लेषण उम्र के आधार पर करने से पता चलता है कि वर्ष 2001 से 2010 तक झारखण्ड में 10 वर्ष से कम उम्र के बलात्कार पीडि़त 0.2 प्रतिशत, 10 से 14 वर्ष के बीच 1.1 प्रतिशत, 14 से 18 वर्ष के बीच 4.3 प्रतिशत, 18 से 30 वर्ष के बीच 74.5 प्रतिशत, 30 से 50 वर्ष के बीच 19.7 प्रतिशत एवं 50 वर्ष से उपर 0.2 प्रतिशत पीडि़त महिलाएं हैं। इसी तरह देश के स्तर पर देखा जाये तो 10 वर्ष कम उम्र के बलात्कार पीडि़त 2.8 प्रतिशत, 10 से 14 वर्ष के बीच 6.6 प्रतिशत, 14 से 18 वर्ष के बीच 14.7 प्रतिशत, 18 से 30 वर्ष के बीच 58.8 प्रतिशत, 30 से 50 वर्ष के बीच 16.6 प्रतिशत एवं 50 वर्ष से ऊपर 0.5 प्रतिशत पीडि़त शामिल हैं। वर्ष 2001 से 2010 तक के उपलब्ध आंकड़े दर्शाते हैं कि बलात्कार की सबसे ज्यादा शिकार 18 से 30 वर्ष की लड़की एवं महिलाएं होती है।
झारखण्ड राज्य एवं पूरे देश में महिलाओं के प्रति बढ़ती हिंसा यह दर्शाती है कि समाज महिलाओं को बराबरी का दर्जा देना ही नही चाहता है। महिलाएं एवं लड़कियां जैसे-जैसे आगे बढ़ रही हैं पुरूष प्रधान समाज उसे स्वीकार नहीं कर पा रहा है इसलिए उनके खिलाफ हिंसा में बढ़ोतरी कर उन्हें पुनः चाहरदिवारी के आंदर ढाकेलने की कोशिश में जुटा हुआ है। महिलाओं के प्रति बढ़ती हिंसा उनके साथ महिला होने के नाते भेदभाव, असमानता और निर्णय प्रक्रिया (परिवार से लेकर समाज और राजसत्ता तक) से उन्हें दूर रखने की वजह से आज भी व्याप्त है। हमारा समाज आज भी लड़कों का हर गुनाह माफ करता है और लड़कियों को लड़कों के द्वारा किये गए कुकर्म का भी सजा देता है।
ऐसी स्थिति में जबतक पुरूष प्रधान समाज महिलाओं को उपभोग की वस्तु, परायाधन एवं बोझ समझता रहेगा महिलाओं के प्रति होने वाले हिंसा बढ़ते ही रहेंगे क्योंकि सिर्फ कानून के बल पर महिला हिंसा को रोका नहीं जा सकता है। महिलाओं के खिलाफ बढ़ी हिंसा के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार उपभोगक्तावादी संस्कृति, पुरूष प्रधान समाज और मुनाफा आधारित बाजार है, जो महिलाओं को मात्र उपभोग की वस्तु बनाकर रखना चाहता है। जब महिलाओं के खिलाफ हिंसा समाज की देन है तो इसके लिए सबसे पहले समाज को ही चिंतन एवं पहल करना होगा। कानून के बल पर स्थितियां नहीं बदल सकती हैं समाज को ठीक करने में कानून मददगार हो सकता है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या हम उपभोगक्तावादी संस्कृति से मुक्ति चाहते हैं? अगर नहीं तो यह घडि़याल आंशू बहाना बंद कीजिये और तैयार रहिये आपनी बेटी, बहन और पत्नियों के बलात्कार की खबरें पढ़ने के लिए।
क्योंकि महिलाओं एवं बच्चियों के खिलाफ हो रहे बलात्कार, हत्या एवं अन्य तरह की हिंसा उपभोगतावादी संस्कृति की ही देन है। वर्तमान समय में बाजार में जिस तरह से महिलाओं को उपभोग की वस्तु के रूप में पेश किया जा रहा है, अश्लील विज्ञापनों की भरमार हैं एवं अश्लील तस्वीरों के साथ शराब खुल्लेआम बेचा जा रहा है, जो सीधे तौर पर महिलाओं के खिलाफ हो रहे हिंसा को बढ़ाने के मुख्य कारण हैं।
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