Gladson Dungdung
कभी खुद अपने परिवार का विस्थापन देख चुके ग्लैडसन आदिवासी संघर्ष के प्रतीक बनते जा रहे हैं. ग्लैडसन डुंगडुंग न केवल आदिवासी वनवासी हितों के लिए कलम चलाते हैं बल्कि सक्रिय रूप से संघर्ष भी करते हैं. झारखण्ड इंडिजनस पीपुल्स फोरम के संयोजक ग्लैडसन हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में विभिन्न अखबारों, पत्रिकाओं और वेब पोर्टल के लिए लिखते हैं. उनकी किताब उलगुलान का सौदा काफी चर्चित रही है.रेड कॉरीडोर का रोता हुआ सच
3 जून 2010 को झारखण्ड के 12 मानवाधिकार कार्यकओं की यात्रा सूर्योदय से पहले ही प्रारंभ हो गई थी। हमने सुना था कि लातेहार जिलान्तर्गत बरवाडीह प्रखण्ड के लादी गांव की एक खरवार आदिवासी महिला, पुलिस एवं माओवादियों के बीच हुए मुठभेड़ की शिकार हो गई। उस महिला का नाम जसिंता था। वह सिर्फ 25 वर्ष की थी। गांव में अपने पति एवं 3 छोटे-छोटे बच्चों के साथ खुशहाल जीवन व्यतीत कर रही थी इसलिए हम घटना की हकीकत जानना चाहते थे। हम जानना चाहते थे कि क्या वह माओवादी थी?
सबसे महत्वपूर्ण बात हम जानना चाहते थे वह यह था कि किस परिस्थिति में बंन्दूक ने उसे जीने का हक छिन लिया तथा सूर्योदय से पहले ही उसके तीन छोटे-छोटे बच्चों के जीवन को अंधेरे में डाल दिया गया? हम यह भी जानना चाहते थे कि इस अपराध के बाद राज्य की क्या भूमिका है? और निश्चित तौर पर हम यह भी जानना चाहते थे कि क्या जसिंता के तीन बच्चे हमारे बहादुर जवानों के बच्चों के तरह ही मासूम है?
सूर्योदय होते ही हमारा तथ्य अन्वेषी मिशन का चारपहिया घुमना शुरू हो गया। जेठ की दोपहरी में हमलोग चिदंबरम के 'रेड कॉरिडोर' में घूमते रहे। संभवतः यहां के आदिवासी 'रेड कॉरिडोर' का नाम भी नहीं सुने होंगे और निश्चित तौर पर वे इस क्षेत्र को 'रेड कॉरिडोर' के जगह 'आदिवासी कॉरिडोर' कहना पसंद करेंगे। जो भी हो इतने घूमने के बावजूद हम लोगों ने माओवादियों को नहीं देखा। लेकिन निश्चित तौर पर हमने जला हुआ जंगल, पेड़ और पतियां देखा। माओवादियों के खिलाफ ऑपरेशन चलाते समय अर्द्धसैनिक बलों ने हजारों एकड़ जंगल को जला दिया है। संभवतः वे माओवादियों का शिकार तो नहीं कर पाये होंगे। लेकिन उन्होंन खुबशूरत पौधे, जड़ीबूटी, जंगली जानवर, पक्षी एवं निरीह कीट-फतंगों को जलाकर राख कर दिया है। उन्होंने जंगली जानवर, पक्षी एवं हजारों कीट-फतंगों का घर जला डाला है। अगर यही काम यहां के आदिवासी करते तो निश्चित तौर पर वन विभाग उनके खिलाफ वन संरक्षण अधिनियम 1980 एवं वन्यजीवन संरक्षण अधिनियम 1972 के तहत कार्रवाई करता।
7 घंटे की थकान भरी लंबी यात्रा के बाद हमलोग लादी गांव पहुंचे, जो लातेहार जिला मुख्यालय से 60 किलोमीटर एवं बरवाडीह प्रखण्ड मुख्यालय से 22 किलोमीटर की दूरी पर जंगल के बीच में स्थित है। लादी गांव मुख्यताः खरवार बहुल गांव है। इस गांव में 83 परिवार रहते हैं, जिसमें 58 परिवार खेरवार, 2 परिवार उरांव, 11 परिवार पराहिया, 10 परिवार कोरवा, 1 परिवार लोहरा एवं 1 परिवार साव है। इस गांव की जनसंख्या लगभग 400 है। गांव की अर्थव्यवस्था कृषि एवं वन पर आधारित है, जो पूर्णतः मानसून पर निर्भर करती है। यहां के खरवार समुदाय की दूसरी महत्वपूर्ण पारंपरिक पेशा पत्थर तोड़ना है, जिससे प्रति परिवार को प्रतिदिन लगभग 80 रूपये तक की अमदनी होती है। यद्यपि गांव के लोग अपने कार्यों में व्यस्त थे लेकिन गांव में पूरा सनाटा पसरा हुआ था। ऐसा महसूस हो रहा था कि पूरा गांव खाली है। गांव में किसी के चेहरा पर मुस्कान नहीं थी। उनके चेहरे पर सिर्फ शोक, डर, भय, अनिश्चिततः और क्रोध झलक रहा था।
परिचय की पवित्र विधि खत्म होने के बाद हमलोग 28 वर्षीय जयराम सिंह के घर गये जिसकी पत्नी जसिंता की गोली लगने से 27 अप्रैल को मौत हो गई थी। हम मिट्टी, लकड़ी एवं खपड़े से बने एक सुन्दर लाल रंग से सुसज्जित घर में घुसे। घर का वातावरण शोक, पीड़ा एवं क्रोध से भरा पड़ा था। परिवार के सदस्य चुप थे लेकिन शोक, दुःख, पीड़ा, भय एवं क्रोध उनके चेहरे पर झलक रही थी। हमें खटिया में बैठने को कहा गया। कुछ समय के बाद जयराम सिंह अपने दो बच्चे - 5 वर्षीय अमृता एवं 3 वर्षीय सूचित के साथ हमारे समक्ष उपस्थित हुआ। जयराम बोलने की स्थिति में नहीं था। वह अभी भी अपनी पत्नी को खोने की पीड़ा से उबर नहीं पाया था। जब भी कोई उसे उस घटना के बारे में पूछता, वह रोने लगता। वह वन विभाग का एक अस्थायी कार्मचारी है जिसकी वजह से जब उसके घर में घटना घटी तब वह गारू नामक स्थान पर डय्ूटी पर तैनात था।
जयराम ने हमें बताया कि उसके तीन बच्चे भी हैं। हमने उनके दो बच्चों को देखा जिनके चहरे पर निराशा छायी हुई थी। हम एक और बच्ची को भी देखना चाहते थे जो सिर्फ 1 वर्ष की है। उसका नाम विभा कुमारी है। वह दूधपीती बच्ची है। मॉं के मारे जाने के बाद वह अपने दादी के गोद में ही खेलती रहती है। हम तीनों बच्चे और उनके पिता की तस्वीर लेना चाहते थे इसलिए हमने विभा को भी हमारे पास लाने को कहा। लेकिन वह हमें देखते ही रोने लगी। वह अपने पिता की गोद में बैठने के बाद भी रोती रही। संभवतः उसे यह लग रहा होगा कि हम उसे उसके परिवार से छिन्ने के लिए आये है जिस तरह से उसे उसके मां को छिन लिया गया। मैं उसको देख कर व्याथीत था। मैंने उसे रोते हुए देखा। वह चुप ही नहीं होना चाहती थी। राष्ट्र की सुरक्षा के नाम पर उसका सुनहरा बचपन छिन लिया गया।
जयराम सिंह का छोटे भाई विश्राम सिंह जो घटना के समय घर में उपस्थित था ने हमें घटना के बारे में बताया कि 27 अप्रैल को ''मिट्टी के लाल घर' में क्या हुआ था। शांम के लगभग 7ः30 बज रहे थे। गांव के सभी लोग खाना खाने के बाद सोने की तैयारी में जुटे थे उसी समय गांव में गोली चलने की आवाज सुनाई दी। कुछ समय के बाद पुलिस ने ग्राम प्रधान कमेश्वर सिंह के घर को घेर लिया। उसके बाद पुलिस वालों ने चिला कर कहा कि घर से बाहर निकलो नहीं तो घर में आग लगा देंगे। इस बात को सुनकर कमेश्वर सिंह का परिवार घबरा कर घर से बाहर निकला। कमेश्वर सिंह एवं उसके बड़े बेटे जयराम सिंह वन विभाग में अस्थायी कार्मचारी हैं जिसकी वजह से वे घर पर नहीं थे। पुलिस की आवाज सुनकर कमेश्वर सिंह का छोटा बेटा विश्राम सिंह (18) दरवाजा खोलकर बाहर निकला। बाहर निकलते ही जवानों ने उसे पकड़कर पीठ के पीछे दोनों हाथ बांध कर उसपर बंदूक तान दिया।
उसके बाद पुलिस के जवान ने विश्राम सिंह के भाभी जसिंता से कहा कि घर के अन्दर और कौन है? इसपर उन्होंने उनके चरवाहा पुरन सिंह (62) के अन्दर सोने की बात कही। पुलिस ने उसे उठाकर बाहर लाने को कहा। जब जसिंता चरवाहा को लेकर बाहर आ रहीं थी तो पुलिस ने उसके उपर गोली चला दिया। गोली उसके सीना पर लगी और वह वहीं ढ़ेर हो गई। पुलिस ने फिर गोली चलायी जो पुरन सिंह के हाथ में लगा, जिससे वह घायल हो गया। लाश देखकर परिवार के सदस्य रोने-चिलाने लगे तो पुलिस ने कहा कि चुप रहो नहीं तो सबको गोली मार देंगे। उन्होंने यह भी कहा कि तुम लोग माओंवादियों को खाना खिलाते हो इसलिए तुम्हारे साथ ऐसा हो रहा है। घटना के बाद पुलिस तुरंत लाश, घायल पूरन सिंह समेत पूरे परिवार को उठाकर ले गई तथा परिवार वालों को धमकी देते हुए कहा कि लोगों को यही बताना है कि जसिंता मुठभेड़ में मारी गई तथा प्रदर्शन वगेैरह नहीं करना है।
गांव वालों को यह पता नहीं था कि लाश कहां है इसलिए उन्होंने 28 अपै्रल 2010 को महुआटांड-डलटेनगंज मुख्य सड़क को जाम कर दिया। इसके बाद सदर अस्पाताल, लातेहार में लाश का पोस्टमॉर्टम होने के बाद पुलिस ने विश्राम सिंह से सादा कागज पर हस्ताक्षर करवाने के बाद लाश को अंतिम संस्कार के लिए परिजनों को सौंप दिया। विश्राम सिंह 4000 रूपये पर भाड़ा में लेकर गाड़ी से लाश को गांव लाया। उसके बाद बरवाडीह के सी0ओ0 द्वारा परिवारिक लाभ योजना के तहत परिवार को 10 हजार रूपये दिया गया। 30 अप्रैल 2010 को मृतक के परिजन एवं गांव वाले जसिंता के हत्या के खिलाफ मुकदमा दर्ज करवाने के लिए बरवाडीह थाना गये लेकिन वहां के थाना प्रभारी रतनलाल साहा ने मुकदमा दर्ज नहीं किया सिर्फ डायरी में सूचना दर्ज किया एवं उन्हें डरा-धमका कर घर वापस भेज दिया।
लेकिन गांव वालों के लगातार विरोध के बाद प्रशासन को मृतक के परिजनों को मुआवजा के रूप में 3 लाख रूपये देने की घोषणा करनी पड़ी। पुलिस ने परिजनों को मुआवजा राशि देने के लिए एक स्थानीय पत्रकार मनोज विश्वकर्मा को मध्यस्त के कार्य में लगाया। 14 मई 2010 को मनोज विश्वकर्मा मृतक के पति जयराम सिंह को लेकर बरवाडीह थाना गया। थाना प्रभारी विरेन्द्र राम ने जयराम सिंह को एक सादा कागज पर हस्तक्षर कर 90 हजार रूपये का चेक लेने को कहा। जब जयराम सिंह ने सादा कागज पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया तो थाना प्रभारी ने उसे खाली हाथ गांव वापस भेज दिया। यह हस्यास्पद ही है कि एक तरफ जयराम सिंह से उसकी पत्नी छिन लिया गया उसके छोटे-छोटे बच्चों को रोते-बिलाखते छोड़ दिया गया और उनके मिलने वाले मुआवजा को भी हड़पने का पूरा प्रयास चल रहा है। नीचे से उपर दौड़ने के बावजूद गुनाहगरों को दंडित नहीं किया गया है।
ग्रामप्रधान कमेश्वर सिंह का चरवाहा पूरन सिंह इस गोली काण्ड में विकलांग हो गया है एवं अभी भी लातेहार सदर अस्पाताल में इलाज करा रहा है, जहां सशस्त्र बल के निगरानी में उसे रखा गया है। लातेहार के सिविल सर्जन अरूण तिग्गा को यह जानकारी ही नहीं था कि पूरन सिंह किस तरह का मरीज है। पूरन सिंह के बातों से भी स्पष्ट है कि यह घटना मुठभेड़ का परिणाम नहीं है। लेकिन बरवाडीह थाना की पुलिस ने इसे मुठभेड़ करार देने के लिए रातदिन एक कर दिया है। पुलिस के अनुसार जसिंता की हत्या माओवादियों की गोली से हुई है।
मृतक के घर का मुवायना करने से स्पष्ट है कि उसके घर में घुसने के लिए एक ही तरफ से दरवाजा है। घर के दिवाल में लगे दो गोलियों के निशान हैं जो प्रवेश द्वार की ओर से चलायी गई है। मुठभेढ़ की स्थिति में घर के अंदर से माओवादियों द्वारा दरवाजो की तरह गोली चलायी गई होती। जसिंता देवी के मारे जाने के बाद पुलिस घर के अंदर घुसी एवं छानबिन किया लेकिन उन्हें कुछ नहीं मिला। अगर घर के अंदर माओवादी होते तो उन्हें पुलिस पकड़ लेती क्योंकि घर में दूसरा दरवाजा नहीं होने की वजह से उनके भागने की कोई संभावना नहीं बनती है। घटना स्थल का मुवायना करने, मृतक के परिजन, चरवाहा एवं ग्रामीणों के बात से यह स्पष्ट है कि जसिंता की हत्या मुठभेड़ में नहीं अपितु पुलिस द्वारा किया गया हत्या है। लेकिन बरवाडीह की पुलिस यह कतई मानने को तैयार नहीं है। पुलिस ने हत्या के खिलाफ मुकदमा तो दर्ज नहीं ही किया लेकिन पोस्टमर्टम रिर्पोट भी परिजनों को नहीं दिया। जयराम सिंह के पास उसके पत्नी की हत्या से संबंधित कोई कागज नहीं है। यहां आज भी पुलिस अत्याचार जारी है। थाना जाने पर दहड़ना, गांव वालों को प्रताड़ित करना, किसी भी समय घरों में घुसना, मार-पीट गाली-गलौज करना एवं किसी को भी पकड़कर ले जाना।
इस हत्या काण्ड के बाद जयराम सिंह एक पिता के साथ-साथ मां की भूमिका भी अदा कर रहा है। उसकी सबसे छोटी बेटी विभा गाय का दूध से जिन्दा है। वह सिर्फ इतना कहता है कि उसको न्याय चाहिए। वह अपनी पत्नी के हत्यारों को दंडित करवाना चाहता है। उसके तीन बच्चे हैं इसलिए वह सरकार से 5 लाख रूपये मुआवजा, एक सरकारी नौकरी एवं उनके बच्चों के लिए मुफ्त शिक्षा की मांग कर रहा है। लेकिन उसके पीड़ा को सुनने वाला कोई नहीं है। यह भी एक बड़ा सवाल है कि जब हमारे बहादुर जवान मारे जाते हैं तो उस पर मीडिया में बहश का दौर चलता है लेकिन विभा, सूचित एवं अमृति के लिए मीडिया के लोग बहश क्यों नहीं कर रहे है? क्यों वो खुबशूरत चेहरे टेलेविजन चैनलों में निर्दोष आदिवासियों के बच्चों के अधिकारों की बात नहीं करते हैं जब वे सुरक्षा बलों के गोलियों से आनाथ बना लिये जाते हैं? क्या ये बच्चे निर्दोष नहीं हैं? क्यों लोग उन निरीह आदिवासियों के बातों पर विश्वास नहीं करते हैं जो प्रतिदिन सुरक्षा बलों के गोली, अत्याचार एवं अन्याय के शिकार हो रहे हैं? क्यों यह परिस्थिति बनी हुई है कि लोगों के अधिकारों को छिन्ने वाले सुरक्षाकर्मियों के बातों पर ही हमेशा भरोशा किया जाता है? क्या यही लोकतंत्र है।
मिट्टी के लाल घर की पीड़ा, विभा का रोना-बिलखना और पुलिस अधिकारी का वही रौब। यह सबकुछ देखने और सुनने के बाद हम लोग रेड कॉरिडोर से वापस आ गये। लेकिन हमारा कंधा खरवार आदिवासियों के दुःख, पीड़ा और अन्याय को देखकर बोझिल हो गये था, पुलिस जवानों के अमानवीय कार्य देखकर हमारा सिर शर्म से झूक गया था और विभा की रूलाई ने हमें अत्याधिक सोचने को मजबूर कर दिया। मैं मां-बाप को खोने का दुःख, दर्द एवं पीड़ा को समझ सकता हॅंू। लेकिन यहां बात बहुत ही अलग है। जब मेरे माता-पिता की हत्या हुई थी उस समय मैं उस दुःख, दर्द और पीड़ा को समझने और सहने लायक था। लेकिन जसिंता के बच्चे बहुत छोटे हैं। विशेष तौर पर विभा के बारे में क्या कहा जा सकता है। उसको तो यह भी पता नहीं है कि उसकी मां कहां गई, उसके साथ क्या हुआ ओर क्यों हुआ?
विभा अभी भी अपनी मां के आने की बाट जोहती है। वह सिर्फ मां की खोज में रोती है। दूध पीने की चाहत मे बिलखती है और मां की गोद में सोने के लिए तरस्ती है। क्या वह हमारे देश के बहादुर जवानों के बच्चों की तरह मासूम नही है? क्या हम सोच सकते हैं कि उसका प्रतिक्रिया क्या होगा जब वह यह जान जायेगी कि हमारे बहादुर जवानों ने उसकी मां को घर में घुसकर गोली मार दिया? उसका गुस्सा कितना हद तक बढ़ जायेगा जब वह यह जान जायेगी कि उसके मां के हत्यारे सरकार से सहायता मिलने वाली राशि को भी गटकना चाहते थे? क्या उसके क्रोध का सीमा नहीं टूट जायेगा जब वह यह जान जायेगी कि उसके मां के हत्यारों ने उसके परिवार एवं गांव वालों पर माओवादी का कलंक लगाकर उनपर जमकर अत्याचार किया? क्या हम अपने बहादुर जवानों को उनके किये का सजा देंगे या विभा, सूचित एवं अमृता जैसे हजारों निर्दोष बचों को रोते, विलखते व तड़पते छोड़कर उनके कब्रों पर शांति की खोज करेंगे? सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या हमारा लोकतंत्र आदिवासियों को न्याय देगा? क्या वे अपने अधिकार का स्वाद चखेंगे? क्या उनके साथ कभी इंसान सा व्यवहार किया जायेगा? विभा का लगातार रोना हमें खतरे के घंटी से अगाह तो कर ही रही है साथ ही एक नई दिशा की ओर इशारा भी कर रही है लेकिन क्या हम उसे समझना चाहते है?
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