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Tuesday, October 29, 2013

राजेंद्र यादव का अवसान और हम

राजेंद्र यादव का अवसान और हम


पलाश विश्वास

जनज्वार डॉटकॉम
अपने लेखन से राजेन्द्र यादव ने हमेशा समाज के वंचित तबके और महिलाओं के अधिकारों की पैरवी की है. वह प्रसिद्ध कथाकार मुंशी प्रेमचंद द्वारा शुरू की गई साहित्यिक पत्रिका 'हंस' का 1986 से संपादन कर रहे थे...http://www.janjwar.com/2011-06-03-11-27-26/78-literature/4469-nahi-rahe-rajendra-yadav-by-janjwar

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जाने-माने साहित्यकार राजेंद्र यादव का देर रात दिल्ली में निधन हो गया।हिन्दी साहित्य जगत से जुड़े उपन्यासकार, कहानीकार, कविता और आलोचना सहित साहित्य की तमाम विधाओं में एक जैसी पकड़ रखने वाले राजेंद्र यादव का सोमवार देर रात करीब 12 बजे निधन हो गया. वह 84 साल थे। बताया जाता है कि करीब 12 बजे अस्पताल ले जाते हुये उन्होंने आखिरी सांस ली। वह लम्बे समय से बीमार चल रहे थे।हाल में कुछ दिनों पहले युवा कथाकार ज्योति कुमारी को लेकर विवाद में फंसे होने के बाद उनका अचानक इस तरह जाना उनके लंबे सामाजिक साहित्यिक योगदान के प्रसंग में त्रासद परिणति ही कही जा सकती है।उनका अंत सचिनतेंदुलकर जैसा चकाचौंद न पैदा करें तो हम हिंदी वाले उनके दोषगुण से इतर उनके योगतदान के मद्देनजर उन्हें थोड़ी बेहतर विदाई शायद दे ही सकते थे।स्त्री विमर्श और स्त्री संबंधों में हमेशा विवाद में रहे राजेंद्र जी हमेशा सामाजिक बदलाव के पक्षधर रहे हैं।इसी सिलसिले पिछले एक दशक से उनसे बीच बीच में संवाद होता रहा है।उनकी हमेशा शिकायत रही है कि मैं बहुत लंबा लिखता हूं।राजेंद्र जी ने पहले मेरी कविताएं प्रकाशित की हंस में। कुछ टिप्पणियां भी छपी हंस में।लेकिन मैं हंस का लेखक कभी नहीं रहा।संजीव के संपादक बनने के बाद तो मैंने उन्हें कुछ भी भेजना बंद कर दिया निजी कारणों से।हालांकि संजीव भाई धनबाद में हमारी पत्रकारिता की शुरुआत से ही 1980 से मदन कश्यप,अनवर शमीम,मनमोहन पाठक और पंकज प्रसून की तरह अंतरंग मित्रमंडली में रहे हैं।दरअसल,कमलेश्वर और राजेंद्र यादव से लेकर सुनील गंगोपाध्याय जैसे महान संपादक साहित्यौर विधाओं को जिस यांत्रिकी तरीके से खास खांचे में बांध रहे थे,उसमें आंदोलन और जनप्रतिबद्धता की बजाय धर्मवीर भारती की तरह ही गिरोहबंदी की बू ज्यादा आती रही है।लोग प्रभाष जोशी,राजेंद्र माथुर और एसपी सिंह को हिंदी पत्रकारिता में बदलावके मसीहा मानते रहे हैं, लेकिन हमारा मानना है,हांलांकि इससे फर्क कोई नहीं पड़ता क्योंकि हमारी औकात एक सबएडीटर से ज्यादा कुछ नहीं है,वह भी परम आदरणीय प्रभाषजोशी के निर्विवाद महिमामंडित ब्राह्मणवाद के सौजन्य से- रघुवीर सहाय ने ज्यादा बुनियादी काम किये।कस्बों और गांवों में भी लोगों को उन्होंने लिखने के लिए प्रेरित किया।हम सारे लोग छात्र जीवन से बिना किसी पहचान दिनमान के लेखक थे। यहां तक कि जनसत्ता में प्रभाष जी की चीम में हरिशंकर व्यास,जवाहर लाल कौल,बनवारी जैसे तमाम निर्मायक लोग दिनमान टीम के हैं।हमारी समझ से मंगलेश की प्रेरणा भी रघुवीर सहाय है।खास बात है कि उन्होंने कोई गिरोहबंदी नहीं की।

फिलहाल उनका शव दिल्ली के मयूर विहार स्थित उनके घर पर अंतिम दर्शन के लिए रखा गया है। दोपहर बाद उनका अंतिम संस्कार किया जाएगा।


जानकारी के मुताबिक, लंबे समय से बीमार चल रहे राजेंद्र यादव की सोमवार रात अचानक तबीयत बिगड़ गई। उन्हें घर के पास ही स्थित अस्पताल ले जाया जा रहा था लेकिन उन्होंने रास्ते में ही दम तोड़ दिया।


राजेंद्र यादव हिन्दी साहित्य का एक मजबूत स्तंभ थे। उन्हें मौजूदा दौर में हिन्दी साहित्य की कई प्रतिभाओं को सामने लाने का श्रेय जाता है। उनके निधन से हिन्दी साहित्य जगत में शोक की लहर फैल गई है।


अपने लेखन में समाज के वंचित तबके और महिलाओं के अधिकारों की पैरवी करने वाले राजेंद्र यादव प्रसिद्ध कथाकार मुंशी प्रेमचंद की ओर से शुरू की गई साहित्यिक पत्रिका हंस का 1986 से संपादन कर रहे थे। अक्षर प्रकाशन के बैनर तले उन्होंने इसका फिर से प्रकाशन प्रेमचंद की जयंती 31 जुलाई 1986 से शुरू किया था।


वह नई कहानी के प्रवर्तक भी रह चुके हैं। कमलेश्वर और मोहन राकेश के साथ उन्होंने नई कहानी आंदोलन की शुरुआत की। इसके अलावा उन्होंने कई उपन्यास और कहानियां लिखीं। उनके मशहूर उपन्यास 'सारा आकाश' पर बाद में बासु चटर्जी ने फिल्म भी बनाई। इसके अलावा उनके कई कहानी संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। इनमें देवताओं की मृत्यु, खेल-खिलौने, जहां लक्ष्मी कैद है, छोटे-छोटे ताजमहल, किनारे से किनारे तक और वहां पहुंचने की दौड़ प्रमुख हैं।


राजेन्द्र यादव

http://hi.wikipedia.org/s/58b

मुक्त ज्ञानकोष विकिपीडिया से

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यह लेख एक आधार है। इसे बढ़ाकर आप विकिपीडिया की सहायता कर सकते हैं।

राजेन्द्र यादव (1929- 2013) २८ अगस्त १९२९ ई० को आगरा उ०प्र० में जन्मे राजेन्द्र यादव हिन्दी साहित्य की सुप्रसिद्ध पत्रिका हंस के सम्पादक है। राजेन्द्र यादव ने १९५१ ई० में आगरा वि०वि० से एम०ए० हिन्दी की परीक्षा प्रथम श्रेणी, प्रथम स्थान के साथ उत्तीर्ण की। इनका निधन 28 अक्तूबर 2013 को नई दिल्ली में हुआ।

प्रकाशित पुस्तकें कहानी-संग्रह देवताओं की मूर्तियां: १९५१, खेल-खिलौनेः १९५३, जहां लक्ष्मी कैद हैः१९५७, अभिमन्यु की आत्महत्याः १९५९, छोटे-छोटे ताजमहलः१९६१, किनारे से किनारे तकः १९६२, टूटनाः १९६६, चौखटे तोड़ते त्रिाकोणः१९८७, श्रेष्ठ कहानियां, प्रिय कहानियां, प्रतिनिधि कहानियां, प्रेम कहानियां, चर्चित कहानियां, मेरी पच्चीस कहानियां, है ये जो आतिश गालिब(प्रेम कहानियां):२००८, अब तक की समग्र कहानियां, यहां तकः पड़ाव-१, पड़ाव-२ः १९८९, वहां तक पहुंचने की दौड़, हासिल तथा अन्य कहानियां उपन्यास सारा आकाशः १९५९('प्रेत बोलते हैं' के नाम से १९५१ में), उखड़े हुए लोगः १९५६, कुलटाः१९५८, शह और मातः १९५९, अनदेखे अनजान पुलः१९६३, एक इंच मुस्कान(मन्नू भंडारी के साथ)१९६३, मंत्रा-विद्धः१९६७. एक था शैलेन्द्र (२००७) कविता-संग्रह आवाज तेरी हैः १९६०. समीक्षा-निबन्ध कहानीः स्वरूप और संवेदनाः१९६८, प्रेमचंद की विरासतः१९७८, अठारह उपन्यासः१९८१, औरों के बहानेः१९८१, कांटे की बात(बारह खंड)१९९४, कहानी अनुभव और अभिव्यक्तिः१९९६, उपन्यासः स्वरूप और संवेदनाः१९९८, आदमी की निगाह में औरतः२००१, वे देवता नहीं हैं : २००१, मुड़-मुड़के देखता हूं, २००२, अब वे वहां नहीं रहते : २००७, मेरे साक्षात्कारः१९९४, काश, मैं राष्ट्रद्रोही होता : २००८, जवाब दो विक्रमादित्य,(साक्षात्कार) २००७, संपादन प्रेमचंद द्वारा स्थापित कथा-मासिक 'हंस' अगस्त,१९८६ से, एक दुनिया समानान्तरः१९६७, कथा-दशकः हिंदी कहानियां (१९८१-९०), आत्मतर्पणः१९९४, अभी दिल्ली दूर हैः १९९५, काली सुर्खियां(अश्वेत कहानी-संग्रह) : १९९५, कथा यात्राा, १९६७ अतीत होती सदी और स्त्राी का भविष्य २०००, औरत : उत्तरकथा २००१, देहरी भई बिदेस, कथा जगत की बाग़ी मुस्लिम औरतें, हंस के शुरुआती चार साल २००८ (कहानियां), वह सुबह कभी तो आएगी (सांप्रदायिकता पर लेख) : २००८, चैखव के तीन नाटक (सीगल, तीन बहनें, चेरी का बगीचा) अनुवाद उपन्यास : टक्कर(चैखव), हमारे युग का एक नायक (लर्मन्तोव) प्रथम-प्रेम(तुर्गनेव), वसन्त-प्लावन(तुर्गनेव), एक मछुआ : एक मोती(स्टाइनबैक), अजनबी(कामू)- ये सारे उपन्यास 'कथा शिखर' के नाम से दो खंडों में- १९९४, नरक ले जाने वाली लिफ्‌ट, २००२, स्वस्थ आदमी के बीमार विचार,2012 वर्तमान पता अक्षर प्रकाशन प्रा.लि., २/३६ अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-११०००२


आगरे में जन्में हिन्दी के प्रमुख आलोचक एवं उपन्यासकार राजेन्द्र यादव हंस पत्रिका के संपादक, कहानीकार व उपन्‍यासकार हैं।

मुख्य रचनाएँ[संपादित करें]

उपन्यास

कथा संग्रह

कविता

आलोचना

संपादन कार्य हंस - जनचेतना का प्रगतिशील कथा मासिक.


मृत्युपूर्व अवांछित विवाद में फंसने के पीछे यादव जी की आदतन यह गिरोहबंदी थी। पांचेक साल पहले हमने उनसे फोन पर लंबी बातचीत के दरम्यान कहा था कि आप लोग इतना अधिक सामाजिक बदलाव की बात करते हैं तो आ जाइये हमारे साथ और जमीन पर खड़े होकर हमारा नेतृत्व कीजिये।उन्होंने कभी जवाब नहीं दिया। हिंदी या दूसरी भारतीय भाषाओं मे साहित्यिक आंदोलनों की परिणति खालिस गिरोहबंदी और हवा में तलवारबाजी हो जाती है,यह भारी विडंबना है। विडंबना यह भी कि मृत्युपूर्व राजेंद्र जी इस गिरोहबंदी के शिकार भी खुद हो गये।


महाश्वेता दी हमारे लिए आलोक स्तंभ जैसी रही हैं। उनको साहित्य अकादमी अध्यक्ष बनाने की मुहिम में हम सार्वजनिक तौर पर तब बंगाल में साहित्य सम्राट की हैसियत वाले सुनील गंगोपाध्याय से भी टकरा गये। दीदी,ममता नहीं महाश्वेता दी से हमारे बेहद अंतरंग संबंध धनबाद से कामरेड एके राय के सौजन्य से बने।बाद में कोलकाता आने पर हम उनकी भाषा बंधन संपादकीय में भी थे। लेकिल लिखने और जमीन पर लड़ाई के परिदृश्यबहुत जुदा जुदा होते हैं। जिस महाश्वेता दी को आदिवासियों के हक हकूक की लड़ाई के लिए पूरी दुनिया जानती हैं, वे अंडमान में संथाल आदिवासियों और दलित शरणार्थियों के हक में कुछ भी बोलने को तैयार नहीं हुई।मरीचझांपी नरसंहार के सिलसिले में वे कामोश रही है।शरणार्थियों को नागरिकता ले बेदखली के मुद्दे पर हम लगातार उनसे संपर्क साधते रहे, वे हमारे साथ खड़ी नहीं हुई।लेकिन यक ब यक वामपंथ को तिलांजलि देकर ममता बनर्जी के हक में खड़ी हो गी।


साहित्य के सामाजिक यथार्थ नस्ली भेदभाव के सामाजिक यथार्थ से कतई भिन्न है। मलाईदार लोग सामाजिक न्याय और समता के पक्ष में लिखते बोलते बहुत कुछ हैं,लेकिन करते कुछ नही हैं।बल्कि कभी कबार क्या अक्सर उलटा ही कर जाते हैं।


राजेंद्र जी और प्रभाषजी बेहतरीन लफ्फाजी के महानायक है और लेखन में हवन यज्ञ के पुरोधा भी। लेकिन सामाजिक मोर्चे पर उनका योगदान शून्य है,यह माने बिना इल महामहिमों का निरपेक्ष मूल्यांकन नहीं हो सकता।हालांकि यह दुःखद ही है कि हम अपने साहित्यिक महानायकों को माफिया डान बतौर चिन्हित करने को बाध्य हों।


लेकिन शोक के बहाने महिमामंडन से हम इस कठिन कारपोरेट समय के नरसंहार परिदृश्य में जनपर्तिरोध के फर्जी मोर्चे ही बनायेंगे और कुछ नहीं।


मेरे लिए सुविधाजनक स्थिति यह जरुर है कि न मैं स्थापित साहित्यकार हूं और न पत्रकार। मैं बस एक छापामार कलमजीवी हूं और अपने उपद्रवी बमबारी से कुलीन निद्रा में कभी कभार खलल डालता हूं।


राजेंद्र जी कोलकाता में जवानी में रहे और यहीं उन्होंने मन्नू भंडारी से विवाह और प्रेम पर्व संपन्न किया। हम कोलकाता पहुंचे तो बुजुर्ग साहित्यकार और राजेंद्र जी के कोलकाता पर्व के अभिन्न मित्र मनमोहन ठाकौर से उन दिनों का जो खाका दिलोदिमाग में बना और ठाकौर जी के अंतरंग संस्मरण से जो तस्वीर बनी,उससे साठ के दशक में कोलकाता के उत्ताल सांस्कृतिक परिदृश्य और हिंदी साहित्य के तार जुड़ जाते हैं। तब कोलकाता में हिंदी के युवा तुर्क शलभ श्रीराम सिंह सक्रिय थे तो राजकमल चौधरी भी।राजेंद्र जी के रचनात्मक लेखन में इस कोलकाता प्रसंग का भारी महत्व है।


वैसे मैं राजेंद्र जी के नजदीक कभी नहीं रहा। हम उन्हें कमलेश्वर और मोहन राकेश के साथ नयी कहानी की त्रिमूर्ति बतौर सत्तर दशक से देखते रहे हैं। कालेज में मेरा माध्यम अंग्रेजी था और मैं अंग्रेजी भाषा और साहित्य का विद्यार्थी था।हिंदी में पढ़ने लिखने का सिलसिला जीआईसी नैनीताल में ताराचंद्र त्रिपाठी के निर्देशन में शुरु हुआ और उस दौर में मेरे रूम पार्टनर थे कपिलेश भोज।नैनीताल में गिरदा से हमारी बैठकी जमती थी और हम लोग समांतर सिनेमा और राजनीतिक सामाजिक दर्शन में ज्यादा खप रहे थे। नयी कहानी के तीनों दिग्गज और समूचे नयी कहानी आंदोलन के साथ बंगीय सुनील शक्ति पीढ़ी के साहित्य को सिरे से खारिज करके हम लोग मुक्तिबोध से सीधे जनवादी साहित्य आंदोलन में दाखिल हो गये थे।बंगाल में भी माणिकबंद्योपाध्याय और महाश्वेता देवी के अलावा हमारी रुचि लघु पत्रिकाओं में छप रहे मुक्तिकामी साहित्य मे ही थी।इसलिए राजेंद्र जी के साहित्य में हमारी उतनी दिलचस्पी भी नहीं ती जितनी कमलेश्वर के समांतर साहित्य आंदोलन में।


कमलेश्वर और राजेंद्र जी से फिरभी बातचीत होती रही है। खासकर झारखंड से लौटकर उत्तर प्रदेश के मेरठ में दैनिक जागरण में काम करते हुए दोनों दिग्गजों से आमना सामना हुआ। बंगाल में आने से पहले और सीधे तौर पर कहें तो 2001 में पिता की मृत्यु से पहले हमने अंबेडकर को पड़ा ही नहीं। मेरे दिवंगत पिता हालांकि बार बार कहते रहे कि अंबेडकर को पढ़े बिना भारतीय संदर्भ में कुछ भी सामाजिक राजनीतिक सांस्कृतिक आर्थिक बदलाव असंभव है। बंगाल में आने से पहले हम उत्ताराखंड के शरणार्थी उपनिवेश में समता और समान अवसर पाने के आदी रहे हैं।बहिस्कार और अस्पृश्यता के दंश झेले ही नहीं और पिता की तरह अपने सामाजिक अवस्थान के बारे में हमारी कोई राय ही नहीं थी।हम पिता की मृत्युतक जनसंस्कृति के झंडेवरदार जरुर थे,लेकिन सीधे तौर पर जन सरोकार से सीध टकराये कभी नहीं।


जब टकराने लगे तब राजेंद्र यादव और हंस के मायने हमारे लिए बदल गये।तब बहुत कम समय के लिए समयांतर में लिखते रहने के मध्य कभी कभार हंस के लिए भी लिखा हमने। लेकिन इसी जनसंघर्ष की कसौटी पर राजेंद्र जी भी बहुत पहले ही हमारे लिए अप्रांसगिक हो गये जैसे कि बंगाल में महाश्वेता देवी।


पत्रिकाएं वैसे ही अकाल मौत मरती हैं ऐसे में साहित्यिक पत्रिका निकालना और उसका लगातार प्रकाशन करना राजेंद्र यादव के ही दिल-गुर्दे का काम था।


राजेन्द्र यादव का जन्म 28 अगस्त 1929 को उत्तर प्रदेश के आगरा ज़िले में हुआ था. उनकी शिक्षा-दीक्षा भी आगरा में ही हुई थी. आगरा विश्वविद्यालय से 1951 में उन्होंने हिंदी से एमए किया था.

अपने लेखन से उन्होंने हमेशा समाज के वंचित तबके और महिलाओं के अधिकारों की पैरवी की है. राजेंद्र यादव प्रसिद्ध कथाकार मुंशी प्रेमचंद द्वारा शुरू की गई साहित्यिक पत्रिका 'हंस' का 1986 से संपादन कर रहे थे.

अक्षर प्रकाशन के बैनर तले उन्होंने इसका पुर्नप्रकाशन प्रेमचंद की जयंती 31 जुलाई 1986 से शुरू किया था.

प्रेत बोलते हैं (सारा आकाश), उखड़े हुए लोग, एक इंच मुस्कान और कुल्टा उनके प्रमुख उपन्यास हैं.

इसके अलावा उनके कई कहानी संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं. इनमें देवताओं की मृत्यु, खेल-खिलौने, जहाँ लक्ष्मी कैद है, छोटे-छोटे ताजमहल, किनारे से किनारे तक और वहाँ पहुँचने की दौड़ प्रमुख हैं. उनकी रचना 'सारा आकाश' उपन्यास पर एक फ़िल्म भी बनी थी.

उनकी पत्नी मन्नू भंडारी हिन्दी कथा लेखन जगत में बहुत जाना पहचाना नाम हैं. 'आपका बंटी' और 'महाभोज' जैसे उपन्यास लिखकर उन्होंने हिन्दी कथा लेखन को एक नयी दिशा दी.


Abhishek Srivastava

3 hours ago

मुझे लगता है दुख जताने, नमन करने और श्रद्धांजलि देने के साथ ही इस वक्‍त राजेंद्र यादव के निधन के तुरंत बाद एक चेतावनी जारी करना कहीं ज्‍यादा जरूरी है। मैं नहीं जानता कि अभी यह बात कहना कितना सही है, फिर भी...


राजेंद्र जी अनिवार्यत: वैज्ञानिक चेतना, वाम वैश्विकता और सबाल्‍टर्न प्रतिरोध के आधुनिक प्रतीक हैं। उनका जाना कई किस्‍म की राजनीति करने वालों को अपने हिसाब से उन्‍हें अपने प्रतीक पुरुष के रूप में गढ़ने की छूट देता है। मुझे आशंका है कि जिस तरह हिंदी के साहित्‍य जगत में वाम प्रतिरोध की धारा फिलवक्‍त हाशिये पर है, उन्‍हें पहचान की राजनीति करने वाली वाम विरोधी ताकतें कहीं हथिया न लें। अगर राजेंद्र यादव कल को आइडेंटिटी पॉलिटिक्‍स (पिछड़ा, दलित या स्‍त्री वर्ग की राजनीति) का चारा बन गए, तो हमारे लिए इससे बड़ी त्रासदी और कुछ नहीं होगी। आज प्रेमचंद को कम्‍युनिस्‍ट या गैर-कम्‍युनिस्‍ट ठहराने की जो बहस चल रही है, मुझे डर है कि बीस साल बाद राजेंद्र जी के साथ भी ऐसा ही न हो जाए।


अभी और तुरंत यह बात कहे जाने की जरूरत है कि राजेंद्र यादव स्त्रियों, दलितों, पिछड़ों आदि के exclusive प्रतीक पुरुष नहीं थे। वे अपनी तमाम निजी खूबियों-खराबियों के साथ समूची प्रगतिशील हिंदी चेतना के संरक्षक थे जो अनिवार्यत: शोषितों-उत्‍पीडि़तों की राजनीतिक एकता के हामी थे। अगर आपको उनसे वास्‍तव में प्रेम है, तो प्‍लीज़, उन्‍हें हाइजैक मत होने दीजिए।

'विवादों से हार नहीं मानी राजेंद्र यादव ने'

मंगलवार, 29 अक्तूबर, 2013 को 11:06 IST तक के समाचार


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राजेंद्र यादव पिछली आधी सदी से हिंदी साहित्य में सक्रिय रहे. उन्होंने तीन-चार क्षेत्रों में बहुत महत्वपूर्ण काम किया है. नई कहानी के लेखकों में महत्वपूर्ण थे राजेंद्र यादव. उन्होंने कुछ अच्छे उपन्यास भी लिखे जिस पर 'सारा आकाश' जैसी फ़िल्म भी बनी. जीवन के उत्तरार्ध में उन्होंने 'हंस' पत्रिका निकाली, जो हिंदी की लोकप्रिय और विचारोत्तेजक पत्रिका मानी जाती है.

"राजेंद्र यादव विचार और व्यवहार में लोकतांत्रिक आदमी थे. मतभेदों से न वे डरते थे, न घबराते थे और न बुरा मानते थे."

प्रोफ़ेसर मैनेजर पांडेय, आलोचक

इसके जरिए उन्होंने दो काम किए, पहला यह कि उन्होंने स्त्री दृष्टि और लेखन को बढ़ावा दिया. स्त्री दृष्टि पर उनकी राय विवादास्पद लेकिन विचारणीय रही. उन्होंने दूसरा काम यह किया कि 'हंस' के ज़रिए उन्होंने दलित चिंतन और दलित साहित्य को बढ़ावा दिया. दलित साहित्य को हिंदी साहित्य में स्थापित करने में राजेंद्र यादव ने उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

राजेंद्र यादव विचार और व्यवहार में लोकतांत्रिक आदमी थे. मतभेदों से न वे डरते थे, न घबराते थे और न बुरा मानते थे. मैं पिछले 20 साल से 'हंस' के लिए लिख रहा हूं. कई मुद्दों पर मतभेद के बाद भी उनसे मेरा संबंध आत्मीय बना रहा, कभी उसमें खटास नहीं आई. उनका जाना हिंदी साहित्य के लिए बहुत बड़ी घटना और नुक़सान है.

इससे 'हंस' का भविष्य अंधकारमय हो गया है. उसका भविष्य क्या होगा यह न तो राजेंद्र यादव को मालूम था और न हम लोगों को. हम इस पर उनसे चर्चा किया करते थे. 'हंस' अगर अब चलती भी है तो, उसमें वह बात नहीं होगी जो राजेंद्र के समय थी. दूसरा बड़ा नुक़सान यह है कि हिंदी के विभिन्न मुद्दों पर होने वाली बहसों में शामिल रहते थे. लेकिन अब ऐसा नहीं हो पाएगा.

हिंदी में दलित साहित्य को आगे बढ़ाने में राजेंद्र यादव का बहुत बड़ा योगदान है. मेरी जानकारी में हिंदी में दलित साहित्य पर पहली गोष्ठी उन्होंने 1990 के दशक में कराई थी. उसके माध्यम से लोग यह जान सके कि हिंदी में दलित साहित्य की धारा विकसित हो रही है. उन्होंने दलित लेखकों की रचनाओं को 'हंस' में प्रमुखता से छापा. दलित साहित्य पर 'हंस' के कई विशेषांक निकाले. इसके ज़रिए दलित साहित्य को समझने और आगे बढ़ाने का काम राजेंद्र यादव ने किया. इसकी बदौलत दलित साहित्य हिंदी में स्थापित धारा बन पाया.

युवा लेखकों को आगे बढ़ाने में भी राजेंद्र यादव का बड़ा योगदान है.

दलित, स्त्री प्रश्न, दमित यौन वृत्तियों पर बहस कराई: अपूर्वानंद

'हंस' साहित्यिक पत्रिका का पुर्नप्रकाशन उनका सबसे बड़ा योगदान माना जाएगा. इसे उन्होंने एक ऐसे मंच का रूप दिया, जिस पर कई नए कहानीकार आए, जिन्हें कोई जानता तक नहीं था. राजेंद्र यादव ने उन्हें जगह दी. विवादों को जानबूझकर जन्म देते हुए और विवाद झेलते हुए भी उन्होंने नए लोगों को मौक़ा दिया. इसके लिए उन्होंने इस बात की चिंता नहीं की कि इसका परिणाम क्या होगा.

हंस में उन्होंने साहित्य के इर्द-गिर्द सामाजिक विषयों पर बहस शुरू की. दलितों के सवाल पर, स्त्रियों के सवाल पर और यौन वृत्तियों के सवाल पर. यह भी उनका बड़ा योगदान है.

"हंस' का संपादन उन्होंने उस समय शुरू किया, जब उनकी रचनात्मकता का सबसे अनुर्वर समय था. इसलिए रचनाकार राजेंद्र यादव को वह पीढ़ी नहीं जान पाई, जो 'हंस' पढ़कर बड़ी हुई. "

प्रोफ़ेसर अपूर्वानंद, दिल्ली विश्वविद्यालय

राजेंद्र यादव उस त्रयी के सदस्य थे, जिनमें कमलेश्वर और मोहन राकेश का नाम आता है. इस त्रयी ने हिंदी कहानी को एक नई दिशा दी और उसके तेवर को बदलकर रख दिया.

मेरी नज़र में राजेंद्र यादव ने अपनी कहानियों में स्त्री-पुरुष संबंधों में दमित इच्छाएं खोजने की कोशिश ज़रूर की लेकिन वह सफल नहीं हो पाए.

आज की पीढ़ी उन्हें 'हंस' के संपादक के रूप में याद करेगी. 'हंस' का संपादन उन्होंने उस समय शुरू किया, जब उनकी रचनात्मकता का सबसे अनुर्वर समय था. इसलिए रचनाकार राजेंद्र यादव को वह पीढ़ी नहीं जान पाई, जो 'हंस' पढ़कर बड़ी हुई. लेकिन इसके पहले की पीढ़ी उन्हें नई कहानी की त्रयी के सदस्य के रूप में याद करेगी.

इनके अलावा बहुत से ऐसे लोग भी हैं, जिन्होंने उनके समय में पहली बार साहित्य में क़दम रखा. वे उन्हें इस रूप में याद करेंगे कि राजेंद्र यादव ने उन्हें मंच दिया. ऐसे लेखकों को संपादकीय साहस की ज़रूरत थी, जिसे राजेंद्र यदाव ने दिखाया.

इसके अलावा राजेंद्र यादव को ख़तरों की परवाह किए बिना अपनी बात बेबाकी से रखने के लिए भी याद किया जाएगा.

(अपूर्वानंद से बीबीसी संवाददाता रूप झा और मैनेजर पांडेय से बीबीसी संवाददाता अजय शर्मा की बातचीत पर आधारित)

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Dusadh Hari Lal
हमने अपना बौद्धिक नायक और अभिभावक खो दिया.

मित्रों! अभी-अभी फेसबुक खोला तो देखा किसी ने राजेन्द्र यादव के प्रति श्रद्धांजलि व्यक्त की थी.यकीन नहीं हुआ,लगा किसी ने मजाक किया है.मैंने संग-संग दिलीप मंडल जी को फोन लगाया.उनका उत्तर पाकर भारी शॉक लगा.मेरी विगत दो दशकों से साहित्य -कविता,कहानी,उपन्यास –में कोई रूचि नहीं रही.बावजूद इसके साहित्यकार राजेन्द्र यादव के निधन से भारी सदमा लगा .उनका साहित्येतर व्यक्तित्व मुझे खासा प्रभावित करता था.उनका चुरुट पीने का अंदाज़,काले चश्मे के पीछे छिपी आँखों की रहस्यमयता मुग्ध करती थी.उनकी छवि दलित और खासकर स्त्री हिमायती की थी .हालाँकि उन्होंने 'हंस' के माध्यम से दलित और स्त्रियों को शक्ति के स्रोतों में उनका प्राप्य दिलाने का कोई अभियान नहीं चलाया,फिर भी इन जन्मजात वंचितों के सवाल को प्रमुखता के साथ साहित्य के दायरे में लाने के लिए उनकी भूमिका चिर-स्मरणीय रहेगी.
अपने बेबाक बयानों के लिए विख्यात राजेन्द्र यादव व्यक्ति के रूप में संकीर्णता से पूरी तरह मुक्त थे.2007 के मार्च में जब उनकी जन्म-स्थली आगरे में 'बहुजन डाइवर्सिटी मिशन'की स्थापना होने जा रही थी,मैंने उसमें उनको शिरकत करने का आग्रह किया.उन्होंने बड़ी बेरुखी से इन्कार कर दिया. मुझे बहुत गुस्सा आया और फ़ोन पर लगभग पांच मिनट तक धारा प्रवाह उन्हें अनाप-सनाप बोलता रहा, वे सुनते रहे.बाद में जुलाई में किसी दिन उन्हें 27 अगस्त,2007 को राजेन्द्र भवन,दिल्ली आयोजित होने वाले दूसरे 'डाइवर्सिटी डे' की अध्यक्षता करने का अनुरोध करने के लिए समय लेकर उनके हंस वाले दफ्तर पहुंचा.ज्यों ही उनके कमरे के दरवाजे पर पहुंचा, वे हाथ जोड़ कर खड़े हो और बोले-'महाराज अभी और कोई गाली बची है'?कमरे में साहित्यकार उदय प्रकाश पहले से मौजद थे और मेरे साथ बंधुवर बृजपाल भारती भी थे.उनका वह अंदाज़ देखकर हंसी भी आई और शर्म से पानी-पानी भी हो गया .किन्तु तमाम बातों को भुलाकर उन्होंने मेरा अनुरोध स्वीकार किया और नियत तिथि पर तमाम अतिथियों में सबसे पहले उपस्थित होकर कार्यक्रम की अध्यक्षता भी किया .हालाँकि उन्होंने खूब खुलकर सामाजिक न्याय की हिमायत नहीं की ,पर उनके रहने पर अवचेतन में कहीं यह भाव रहता था की हमारा कोई बौद्धिक अभिभावक है.यह पंक्तियां लिखते समय पलके भींगी हुई हैं.आज उनके नहीं रहने पर लग रहा है हमने अपना बौद्धिक नायक और अभिभावक खो दिया.साहित्य के अप्रतिम नायक के चरणों में कोटि-कोटि नमन.

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Mediamorcha E-patrika
राजेंद्र यादव नहीं रहे : हिन्दी साहित्य के एक अध्याय का पटाक्षेप
2013.10.29
नयी दिल्ली। हिन्दी के प्रख्यात लेखक और चर्चित साहित्यिक पत्रिका" हंस" के संपादक राजेन्द्र यादव का कल मध्य रात्रि निधन हो गया। वह 84 वर्ष के थे।राजेन्द्र यादव की कल रात अचानक तबियत खराब हो गई थी। उन्हें सांस लेने की तकलीफ होने पर रात्रि 11 बजे के बाद तुरंत एक निजी अस्प…Read more onwww.mediamorcha.com

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कबीर की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले और आधुनिक भारत के सबसे बड़े साहित्यकार राजेंद्र यादव नहीं रहे. साहित्य और सामाजिक बहसों को आधुनिक बनाने वाले भारत के वाल्टेयर ...See More

Alok Putul
राजेंद्र यादव नहीं रहे.
5-6 साल पहले पत्रकार जयंती रंगनाथन ने उनसे एक लंबी बातचीत की थी-
चीनी कम जिंदगी ज्यादा.
बाद में उनकी बेटी रचना यादव का लिखा भी रविवार पर हमने लगाया था-
एक नॉन पापा की बात.
इन सबको फिर से पढ़ते हुये राजेंद्र यादव के कई-कई चेहरे याद आ रहे हैं.
http://raviwar.com/news/944_rajendra-yadav-no-more-20131029.shtml

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Tushar Bhattacharjee shared Badal Kumar Tah's photo.

UP School teacher[Sikhya Sahayika] of Tikiri who got burnt 0f almost 90% was transferred to Vizag hospital. This photo was taken by me during a press conference...See More

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Tushar Bhattacharjee
Book Tribes of Koraput by K.K.Mohanti,P.C.Mahapatra,J.Samal.

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Avinash Das
राजेंद्र यादव चले गये. जब पुराना जाता है, नया थोड़ा पुराना-सा महसूस करता है. पर ये न्यूज चैनल वाले हमेशा बच्चों सा ट्रीट करते हैं. अभी एक चैनल से फोन आया कि साहित्यकारों के नंबर चाहिए. अब मैं टेलीफोन डायरेक्टरी, टेलीफोन एक्सचेंज तो हूं नहीं. फोन काट दिया. क्योंकि हम भी मुंह में जबान रखते हैं... धार यादव जी के समान रखते हैं.

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Jai Narain Budhwar
राजेन्द्र यादव नहीं रहे …। उनका न होना उनके होने पर भारी है .... इधर उनसे जब भी बात हुई वे यही कहते थे जय नारायण तुमसे जिजीविषा मिलती है फ़ोन करते रहा करो .... पिछली बार जब दिल्ली गया वे मिलने न आ सके मैं भी न जा सका …उनकी स्मृतियों को नमन

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Priyankar Paliwal
वे तेजस्वी थे. बेबाक थे . इसलिए विवादास्पद भी .

स्त्री और दलित प्रश्नों को सबसे पहले और सबसे ज्यादा तवज्जो उन्होंने ही दी .
उनसे नाखुश मित्रों ने 'हंस' को 'कौवा' कहा पर वे हिन्दी के सबसे चर्चित संपादक बने रहे.
अब तो बहुत से क्लोन उपलब्ध हैं पर सांप्रदायिकता के खिलाफ सबसे मुखर और जुझारू मोर्चा उन्होंने ही खोला ....See More

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पिछड़ें लोगों ने अपना निर्भीक, क्रांतिकारी, साहित्यकार और विचारक खो दिया. एक युग का अंत. राजेंद्र जी हमेशा शोषितो-वंचितोऔर महिलाओ की मुक्ति के प्रेरणास्रोत बने रहेगें. महानायक की अंतिम विदाई पर क्रांतिकारी श्रद्धांजलि. — with Dilip C Mandal and 15 others.

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Avinash Das
मेरी उनसे कभी कोई असहमति नहीं थी। असहमतियों का नाटक था। क्‍योंकि वे सहमत लोगों से संवाद के पक्ष में नहीं थे। वे स्त्रियों से ज्‍यादा प्‍यार करते थे, हम एकनिष्‍ठता के स्‍वांग के साथ उनसे सार्वजनिक घृणा और निजी तौर पर ईर्ष्‍या करते थे। उन्‍होंने जो पाया, उनके साथ चला गया... हमने जो खोया, वह हमारी आत्‍मा के इर्दगिर्द भटकता रहेगा।
#RIP #RajendraYadav

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Uday Prakash shared Shashi Bhooshan's status update.

Shashi Bhooshan

राजेन्द्र यादव नहीं रहे। हिंदी का अंबेडकर चला गया। जिन्हें व्यक्ति राजेंन्द्र यादव से हज़ारों शिकायतें होंगी वे भी उनके कामों को भुला न सकेंगे। राजेंन्द्र यादव हिंदी लेखन को वहाँ ले गये जहाँ से वास्तव में आवाज़े आनी बाकी थीं। शायद ही कोई समकालीन मुद्दा हो जिस पर राजेंन्द्र यादव चुप रहे हों। उन्होंने हिंदी पत्रिकाओं की रेंज बढ़ाने में अभूतपूर्व योगदान दिया। उन्हें मेरा अंतिम प्रणाम! श्रद्धांजली!....

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With Devansu Yadav and Awdhesh Narayan Mishra.

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Niyamgiri Update: Tribals of niyamgiri yesterday gathered at Kalyansinghpur to protest the CRPF & other armed forces' intentional harassment to the forest dwell...See More

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Shirish Kumar Mourya
उनसे असहमत होना आसान था। वे खुले घाव थे। ख़ुद को भरपूर कुरेदते भी रहते थे। अकसर उन्‍हें घायल और अपने ही घावों से मज़े लेते देखा। नई कहानी के ज़माने से ही उन्‍हें कई सारी सही-ग़लत बातों का श्रेय लेने की विवादप्रिय आदत थी। उनके जाने से एक टारगेट ख़त्‍म हो गया जिसे उन्‍होंने ख़ुद ही औरों के लिए तय कर दिया था। अब उनकी याद आएगी महज एक याद की तरह। — with Ashok Kumar Pandeyand Prabhat Ranjan.

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Shyamsunder B. MauryaMedia Darbar
Jyaada Bacche..

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Pushya Mitra
अपने तमाम विरोधाभासों के बावजूद राजेंद्र यादव मुझे पसंद हैं. क्योंकि उन्होंने हिंदी साहित्य को जो दिया है वह अमूल्य है. और मेरा हमेशा से मानना है लेखक जो है वह महत्वपूर्ण नहीं है, लेखक जो लिखता है मोल उसी का है. इसलिए मुझे श्रीकांत वर्मा भी पसंद हैं, राजकमल चौधरी भी पसंद हैं, क्नूत हाम्सन भी पसंद हैं और राजेंद्र यादव भी.

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Ravindra Tripathy
राजेंद्र यादव की स्मृति में

रात लगभग डेढ़ बजे कवि भरत तिवारी का फोन आया- sir has left us। कलेजा धक्क से रह गया। पूरी रात कई तरह यादें आईं। पहली याद लगभग बत्तीस साल की है।तब मैदिल्ली विश्वविद्यालय क हिंदी विभाग में पढ़ता था और हिंदी साहित्य सभा का अध्य़क्ष था। सभा की पहली बैठक होनेवाली थी। किसी मुख्य अतिथि की तलाश था। डॉ विश्वनाथ त्रिपाठी तब साहित्य सभा के सलाहकार थे। तय हुआ कि राजेंद्र यादव को बतौर मुख्य अतिथि बुलाया जाए। उनको निमंत्रित करने में शक्ति नगर गया जहां वे उस वक्त रहते थे। हालांकि उनकी किताबें पढ़ चुका था पर भेंट पहली थी। मन में था कि पता नहीं किस तरह मिलेंगे। पर पहली बार ही वे इतने औपचारिक हो गए कि लगा ही नहीं ये पहली मुलाकात है।

आज ये लग रहा है कि ये पहली मुलाकात कल ही हुई थी। लेकिन कल ही तो वे नहीं रहे।

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Indira Athawale
हंस" चे संपादक -राजेंद्र यादव यांच्या निधनाने साहित्यिक जगताची मोठी हानी झाली आहे. भावपूर्ण श्रद्धांजली- इंदिरा आठवले

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उड़ जाएगा हंस अकेला दो दिन का दर्शन मेला राजा भी जाएगा जोगी भी जाएगा गुरू संग जाएगा चेला -कबीर की नगरी के चेलों,गुरुओं ,परम अधम गुरुओं,गुरुघंटालो,अक्खडों फक्कड़ो...See More


Himanshu Kumar
सोनी सोरी पर सरकार ने आठ फर्जी मुकदमे बनाए थे . जिनमे से पांच मामलों में सोनी सोरी को कोर्ट ने निर्दोष घोषित कर दिया है .एक मामले में सोनी सोरी को कोर्ट ने ज़मानत दे दी है . एक मामले को दाखिल दफ्तर किया जा चूका है . अब एक ही मामले में सोनी सोरी और लिंगा कोडोपी जेल में कैद हैं .

सरकार ने एक राजपूत कांग्रेसी नेता के घर पर हमला करने के में फंसा कर सोनी सोनी सोरी , लिंगा कोडोपी और सोनी सोरी के पति अनिल फुटाने को जेल में डाल दिया .

लेकिन बाद में कोर्ट ने इन तीनों को निर्दोष मान कर इस मामले में भी बरी कर दिया .

सोनी सोरी और लिंगा कोडोपी पर अब बचा हुआ आख़िरी मामला इतना हास्यापद है कि सरकार पर हंसी आती है .

पुलिस के मुताबिक़ ''एस्सार कम्पनी का एक ठेकेदार बीके लाला बाज़ार में पन्द्रह लाख रूपये लेकर पहुंचा . बाज़ार में सोनी सोरी और लिंगा कोडोपी पहुंचे और ठेकेदार बीके लाला ने सोनी सोरी और लिंगा कोडोपी को पन्द्रह लाख रूपये दिए तभी पुलिस ने बीके लाला और लिंगा कोडोपी को पकड़ लिया और सोनी सोरी भाग गयी .''

बाद में फोन पर पुलिस अधिकार ने स्वीकार किया कि असल में ये पूरा मामला फर्जी है और पुलिस का ही बनाया हुआ है . पुलिस अधिकारी के इस फोन की स्वारोक्ति का का पूरा वीडियो तहलका की वेबसाईट पर मौजूद है .

लेकिन अगर यहाँ कुछ देर के लिए पुलिस की कहानी को सच भी मान लिया जाय तो भी कोई पुलिस की इस फर्जी कहानी को कोई भी स्वीकार नहीं कर सकता .

१- पुलिस का कहना है कि ठेकेदार बीके लाला ने लिंगा कोडोपी और सोनी सोरी को पन्द्रह लाख रूपये दिए
- लेकिन पुलिस की चार्ज शीट में नगदी लिंगा कोडोपी के पास से ज़ब्त नहीं हुई है . सीजर मेमो में नगदी ठेकेदार बीके लाला के पास से ज़ब्त दिखाई गयी है .
- पुलिस भी मानती है कि पैसा बीके लाला का अपना था .
- पुलिस भी मानती है कि पैसा बीके लाला के पास से ही ज़ब्त हुआ .
- तो अपना पैसा अपने पास से ही ज़ब्त होने में कौन सा जुर्म हुआ ?
- पुलिस की कहानी को सच मान भी लें तो भी कोई जुर्म तो हुआ ही नहीं .
- इस कहानी के समर्थन में पुलिस में सिपाहियों को गवाह के रूप में पेश किया है . इन सिपाहियों के बयान में भी घटना स्थल पर सोनी सोरी के मौजूद होने की बात नहीं लिखी हुई है .
- असल में महीने भर बाद जब पुलिस ने सोनी सोरी को दिल्ली में आकर पकड़ा था , उसके बाद इस मामले में सोनी सोरी का नाम जोड़ा गया .
- पुलिस के सिपाहियों से एक महीने भर बाद सिपाहियों से एक दूसरा बयान लिखवाया गया जिसमे इन पुलिस वालों से लिखवाया गया कि घटना स्थल पर सोनी सोरी भी मौजूद थी .

- हांलाकि इस तरह से पुलिस वालों का दो बार बयान बदलना गैर कानूनी है .

इस तरह के पूरे फर्जी मामले में फर्जी तरीके से सोनी सोरी और लिंगा कोडोपी को जेल में बंद कर के रखा हुआ है .

इस पूरे फर्जी मामले में फंसा कर सोनी सोरी को थाणे में प्रतारणा दी गयी , सोनी सोरी के पति को जेल में पीट पीट कर अधमरा कर के जेल से बाहर किया गया जिससे सोनी सोरी के पति की मौत हो गयी .

सोनी सोरी के पूरे परिवार को तबाह कर दिया गया .

ये सब इसलिए हुआ क्योंकि सोनी सोरी ने इन्साफ के लिए अपनी आवाज़ उठाई थी .

इन्साफ तो मिला नहीं . बदले में सरकार ने इन्साफ मांगने वाले पर ही हमला कर दिया .

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा शुक्रवार को इस मामले में ही सोनी सोरी और लिंगा कोडोपी की ज़मानत पर जेल से रिहाई के लिए सुनवाई की जानी है .

दन्तेवाड़ा वाणी: इन्साफ मांगने वाले पर ही हमला कर दिया

dantewadavani.blogspot.com

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Dilip C Mandal
राजेंद्र यादव ने जब एक के बाद एक अनगढ़ करार दिए गए लोगों और महिलाओं को हंस में छापना शुरू किया तो मठाधीशों ने दुष्प्रचार शुरू किया कि हंस तो "कौवा" हो गया है. "स्टैंडर्ड गिर गया है." "जाने किनको छापते रहते हैं राजेंद्र जी." लेकिन राजेंद्र यादव ने ऐसा करके एक ऐसी लकीर खींच दी, जिसकी मिसाल भारतीय साहित्य इतिहास में नहीं है.

राजेंद्र यादव ने कलावाद और इलीटवाद के मुकाबले साहित्य का नया सौंदर्यशास्त्र रचा है.

यह सब करते हए वे लगातार आलोचनाओं और साजिशों के शिकार बने और हर बार पहले से मजबूत होकर निकले.

न अपनी जीत नई है, न उनकी हार नई है.
Dilip C Mandal
राजेंद्र यादव किसी को जूनियर फील नहीं होने देते थे. बराबरी पर बिठाते थे और गंभीरता से चर्चा करते थे....साहित्य के दंडवत-चापलूसी कल्चर और चरण स्पर्श की नामवरी संस्कृति के वे काउंटरप्वांयट थे.

आप चाहकर भी राजेंद्र यादव का चरण स्पर्श नहीं कर सकते थे. ऐसा करने वालों पर बहुत नाराज होते थे. इस अपराध के लिए वे किसी को कमरे से बाहर भी निकाल सकते थे.

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राजेंद्र यादव की मृत्यु की खबर पर साहित्यिक जगत ने अपने श्रद्धा सुमन अर्पित किये हैं।

जाने माने आलोचक वीरेन्द्र यादव ने कहा है, "राजेंद्र यादव जी नहीं रहे। हिन्दी साहित्य के एक अध्याय का सचमुच पटाक्षेप हो गया।"

वरिष्ठ पत्रकार आनंद प्रधान ने कहा है, "राजेन्द्र यादव का जाना हिंदी पब्लिक स्फीयर के लिए बहुत बड़ा नुक़सान है। इस समय जब जनतंत्र, धर्मनिरपेक्ष और सामाजिक न्याय जैसे मूल्यों और राजनीति को खुली चुनौती दी जा रही हो, उनकी ग़ैर-मौजूदगी खलेगी। उनकी स्मृति को नमन और हार्दिक श्रद्धांजलि।"

जनवादी साहित्यकार अशोक कुमार पाण्डेय ने कहा, "राजेन्द्र जी को तबसे जानता हूँ जबसे साहित्य पढ़ना शुरू किया। मिला कभी नहीं। हंस के आयोजन में देखा था आख़िरी बार। सोचा दिल्ली जमने के बाद उनके दफ़्तर जाऊँगा कभी। पर सुबह-सुबह दिल्ली पहुँचने के साथ उनके जाने की ख़बर मिली। क्या कहूँ. इस शहर का आगाज़ ही इतना बुरा। विदा राजेन्द्र जी। सलाम…श्रद्धांजलि।"

पत्रकार अरविंद शेष, "जड़ सामाजिक सत्तावादी सड़ांधों, बर्बर और सड़ी हुई जाति-व्यवस्था, कुंठित पुरुषवादी ब्राह्मणवाद और यथास्थितिवादी के खिलाफ़ खड़े राजेंद्र की ज्ञरूरत हमेशा बनी रहेगी…।"

स्वतंत्र मिश्र- "राजेंद्र यादव का उपन्यास 'सारा आकाश' , कुछ कहानियां साहित्य के लिए अमूल्य धरोहर हैं. राजेंद्र जी के दफ्तर जब भी गया बहुत गरमजोशी से सबका स्वागत करता हुआ पाया। उनके लिए नए- पुराने, छोटे- बड़े का कोई मतलब नहीं था। मैं पहली बार एक ऐसे अखबार के लिए उनका इंटरव्यू करने गया जिसका नाम मुझे ही याद नहीं रहता। अजय नावरिया द्वारा सम्पादित उनके इंटरव्यू की किताब में उसे भी शामिल किया गया पाया तो मुझे बहुत ख़ुशी हुई. हालाँकि उनसे किया गया दूसरा इंटरव्यू जो प्रेम कुमार मणि और प्रमोद रंजन द्वारा सम्पादित होनेवाली पत्रिका 'जन विकल्प ' में छपी थी, वो ज्यादा बेहतर है. उन्होंने कभी भी अपनी आलोचना को या आलोचकों से नाराजगी नहीं पाली। राजेंद्र यादव पर जब 'पाखी' का अंक छप कर आया तो मैंने उनसे एक मुलाक़ात में पूछा कि मैंने आपकी आलोचना की आपको बुरा नहीं लगा तो उनका जवाब था- 'आलोचना के रास्ते कभी भी बंद नहीं होने देने चाहिए। खिड़कियां और दरवाजे खुले रखने चाहिए अन्यथा सड़ांध पसरने का खतरा पैदा हो जाता है. उन्हें नम आँखों के साथ आखिरी विदाई।"

शिरीश कुमार मौर्या- "उनसे असहमत होना आसान था। वे खुले घाव थे। ख़ुद को भरपूर कुरेदते भी रहते थे। अकसर उन्‍हें घायल और अपने ही घावों से मज़े लेते देखा। नई कहानी के ज़माने से ही उन्‍हें कई सारी सही-ग़लत बातों का श्रेय लेने की विवादप्रिय आदत थी। उनके जाने से एक टारगेट ख़त्‍म हो गया जिसे उन्‍होंने ख़ुद ही औरों के लिए तय कर दिया था। अब उनकी याद आएगी महज एक याद की तरह।"

डॉ. इमरान इदरीस, "हंस कल रात अपने अनिश्चितकालीन यात्रा पर चला गया। कोई अपना चला गया, हंस ने सोचना सिखाया, नयी नज़र दी… दलितों, स्त्रfयों, मुसलमानों की जगह बनाने के लिए आपकी क़लम ने जो मोर्चा लिया। निर्भय और निर्भय लोगों के सहारा, आधुनिक कबीर, जनतांत्रिक, तमाम आलोचको के आलोचक के जाने के बाद और उन्हें लोग कविता के विरोधी कहते रहे लेकिन कविता का पक्षधर उनसे बड़ा कोई नहीं दिखा। भारतीय साहित्य की सामंती ठाठ को नाक रगड़ने और आभिजात्य़ हनक को दुम दबाकर रहने को मजबूर करने वाले हंस अपनी यात्रा पर। श्रद्धांजलि।"

सुनील आचार्य- "मेरे जैसे तमाम पाठकों के लिए यह समाचार किसी सदमे से कम नहीं है। 'हंस' जब पुनः प्रकाशित करने का निर्णय उन्होंने लिया तो उस समय यह यह कोई बड़ी खबर नहीं बनी। लेकिन शायद तीन या चार अंकों के बाद ही हिंदी के साहित्यप्रेमी हलकों में इस पत्रिका को नज़रअंदाज़ करना नामुमकिन हो गया था। मैं समझता हूँ कि हंस के प्रकाशन ने आम बुकस्टाल पर कथादेश, नया ज्ञानोदय, साक्षी और वागर्थ व अन्य साहित्याभिमुखी पत्रिकाओ की उपलब्धता सुनिश्चित करने हेतु ज़मीन तैयार की। 'मेरी तेरी उसकी बात' के बीच से निकल कर मौन रहना सम्भव नहीं था। मेरी श्रद्धांजलि !"

हरे प्रकाश उपाध्याय- "साहित्य का राजहंस हमें छोड़ गया। आदरणीय राजेंद्र यादव के न रहने से हमने हिंदी साहित्य के उस आवेग, असहमति और साहस को गंवा दिया है, जिसकी भरपाई शायद ही कभी संभव हो और उसके बिना हम एक भारी निरसता और ठंडेपन का अनुभव करेंगे। अभी कल ही तो दृश्यांतर में उनके उपन्यास भूत का अंश पढ़कर मैंने टिप्पणी की थी। राजेंद्र जी के साथ मुझे भी कुछ महीनों काम करने का समय मिला था। मैंने अब तक के जीवन में उन जैसा जनतांत्रिक व्यक्ति नहीं देखा। वे हम जैसे नवोदित और अपढ़-अज्ञानी लोगों से भी बराबरी के स्तर पर बात करते थे और अपनी श्रेष्ठता को बीच में कही फटकने तक नहीं देते थे। किशन से नजरें चुराकर कविरवींद्र स्वप्निल प्रजापति और मुझे अनेक बार उन्होंने अपनी थाली की रोटी खिलाया था। मैं जब-तब उनका हमप्याला भी बना। वे एक बार कृष्णबिहारी जी के पास अबूधावी गये थे, तो वहाँ से मेरे लिये वहाँ की एक सिगरेट का पैकेट लेकर आये थे। उन्होंने सबसे नौसिखुआ दिनों में हंस के कुछ महीनों में मुझे जो आजादी दी थी, उसे मैं भूल नहीं सकता। बाद में रोजी-रोटी और पारिवारिक जरूरतों के कारण मुझे हंस छोड़ना पड़ा था। राजेंद्र जी को जब पता चला कि हंस से अधिक मेहनताने का ऑफर एक दूसरी जगह से मुझे है, तो उन्होंने मेरी भावुकता को फटकारते हुए कहा था कि जा, तू…आगे की जिंदगी देख। तुम्हारे आगे अभी लंबी जिंदगी पड़ी है। उन्होंने हंस के संपादकीय में अगले महीने लिखा कि हमारे सहायक संपादक हरे प्रकाश उपाध्याय अब कादंबिनी में आ रहे हैं। ऐसा ही कुछ था। मैंने उनसे पूछा कि आपने जा रहे हैं, क्यों नहीं लिखा तो बोले कि तुम जा नहीं सकते मेरे यहाँ से। बाद में जीवन की आपाधापी में उनसे मिलना कम होता गया। मैंने उनसे क्या-क्या छूट नहीं ली। अपनी अज्ञानता में उन पर तिलमिलाने वाली न जाने कैसी-कैसी टिप्पणियां की, कभी एकदम सामने तो कभी लिखकर, पर उन्होंने शायद ही कभी बुरा माना। अगर माना भी हो, तो मुझे तो कम से कम ऐसा आभास नहीं होने दिया। आज यह सब लिखते हुए मैं सचमुच रो रहा हूँ। राजेंद्र जी, आपसे जो लोग निरंतर असहमत रहते थे और झगड़ते रहते थे- वे सब रो रहे होंगे। अब हमें जीवन और कोई राजेंद्र यादव नहीं मिलेगा। राजेंद्र यादव जैसा कोई नहीं मिलेगा। राजेंद्र जी का जीवन सचमुच खुली किताब की तरह है। दिल्ली के बड़े लेखकों में अगर सबसे ज्यादा उपलब्ध, सहज और मानवीय कोई था, तो राजेंद्र यादव। दिल्ली के मेरे दिनों की अगर मेरी कोई उपलब्धि है, तो राजेंद्र यादव से मिलना, उनसे बहसना और उनके साथ काम करना। बातें काफी हैं, पर मैं अभी नहीं लिख पाऊंगा और सभी तो कभी नहीं लिख पाऊंगा।"


राजेंद्र यादव

भारत डिस्कवरी प्रस्तुतिलेख ♯ (प्रतीक्षित)


राजेंद्र यादव


*

पूरा नाम

राजेंद्र यादव

जन्म

28 अगस्त 1929

जन्म भूमि

आगरा, उत्तर प्रदेश

मृत्यु

28 अक्टूबर, 2013 (84 वर्ष)

मृत्यु स्थान

नई दिल्ली

पति/पत्नी

मन्नू भंडारी

कर्म-क्षेत्र

उपन्यास, कहानी, आलोचना

मुख्य रचनाएँ

उपन्यास- सारा आकाश, उखड़े हुए लोग, शह और मात

कहानी संग्रह- देवताओं की मूर्तियां, खेल खिलौने, जहां लक्ष्मी कैद है

आलोचना- कहानी : अनुभव और अभिव्यक्ति, कांटे की बात - बारह खंड

भाषा

हिंदी

विद्यालय

आगरा विश्वविद्यालय

शिक्षा

एम.ए. (हिन्दी)

पुरस्कार-उपाधि

शलाका सम्मान

नागरिकता

भारतीय

अन्य जानकारी

राजेंद्र यादव संयुक्त मोर्चा सरकार में वर्ष 1999 से लेकर 2001 तक प्रसार भारती के सदस्य भी बनाये गये थे।

इन्हें भी देखें

कवि सूची, साहित्यकार सूची

राजेंद्र यादव (अंग्रेज़ी:Rajendra Yadav, जन्म: 28 अगस्त 1929 - मृत्यु: 28 अक्टूबर 2013)हिन्दी साहित्य की सुप्रसिद्ध पत्रिका हंस के सम्पादक और लोकप्रिय उपन्यासकार थे। राजेंद्र यादव ने1951 ई. में आगरा विश्वविद्यालय से एम.ए. (हिन्दी) की परीक्षा प्रथम श्रेणी, प्रथम स्थान के साथ उत्तीर्ण की। जिस दौर में हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाएं अकाल मौत का शिकार हो रही थीं, उस दौर में भी हंस का लगातार प्रकाशन राजेंद्र यादव की वजह से ही संभव हो पाया। उपन्यास, कहानी,कविता और आलोचना सहित साहित्य की तमाम विधाओं पर उनकी समान पकड़ थी।

जीवन परिचय

हिंदी पत्रिका 'हंस' के 25 साल और हिन्दी साहित्य के 'द ग्रेट शो मैन' राजेंद्र यादव यदि भारत में आज हिन्दी साहित्य जगत की लब्धप्रतिष्ठित पत्रिकाओं का नाम लिया जाये तो उनमें शीर्ष पर है-हंस और यदि मूर्धन्य विद्वानों का नाम लिया जाय तो सर्वप्रथम राजेंद्र यादव का नाम सामने आता है। साहित्य सम्राट प्रेमचंद की विरासत व मूल्यों को जब लोग भुला रहे थे, तब राजेंद्र यादव ने प्रेमचंद द्वारा 1930में प्रकाशित पत्रिका 'हंस' का पुर्नप्रकाशन आरम्भ करके साहित्यिक मूल्यों को एक नई दिशा दी। अपने 25 साल पूरे कर चुकी यह पत्रिका अपने अन्दर कहानी, कविता, लेख, संस्मरण, समीक्षा, लघुकथा, ग़ज़ल इत्यादि सभी विधाओं को उत्कृष्टता के साथ समेटे हुए है। ''मेरी-तेरी उसकी बात'' के तहत प्रस्तुत राजेंद्र यादव की सम्पादकीय सदैव एक नये विमर्श को खड़ा करती नज़र आती है। यह अकेली ऐसी पत्रिका है जिसके सम्पादकीय पर तमाम प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाएं किसी न किसी रूप में बहस करती नजर आती हैं। समकालीन सृजन संदर्भ के अन्तर्गत भारत भारद्वाज द्वारा तमाम चर्चित पुस्तकों एवं पत्र-पत्रिकाओं पर चर्चा, मुख्तसर के अन्तर्गत साहित्य-समाचार तो बात बोलेगी के अन्तर्गत कार्यकारी संपादक संजीव के शब्द पत्रिका को धार देते हैं। साहित्य में अनामंत्रित एवं जिन्होंने मुझे बिगाड़ा जैसे स्तम्भ पत्रिका को और भी लोकप्रियता प्रदान करते है। कविता से लेखन की शुरूआत करने वाले हंस के सम्पादक राजेंद्र यादव ने बड़ी बेबाकी से सामन्ती मूल्यों पर प्रहार किया और दलित व नारी विमर्श को हिन्दी साहित्य जगत में चर्चा का मुख्य विषय बनाने का श्रेय भी उनके खाते में है। निश्चिततः यह तत्व हंस पत्रिका में भी उभरकर सामने आता है। आज भी 'हंस' पत्रिका में छपना बड़े-बड़े साहित्यकारों की दिली तमन्ना रहती है। न जाने कितनी प्रतिभाओं को इस पत्रिका ने पहचाना, तराशा और सितारा बना दिया, तभी तो इसके संपादक राजेंद्र यादव को हिन्दी साहित्य का 'द ग्रेट शो मैन' कहा जाता है। निश्चिततः साहित्यिक क्षेत्र में हंस एवं इसके विलक्षण संपादक राजेंद्र यादव का योगदान अप्रतिम है।[1]

प्रमुख कृतियाँ

उपन्यास

  • सारा आकाश

  • उखड़े हुए लोग

  • शह और मात

  • एक इंच मुस्कान

  • कुलटा

  • अनदेखे अनजाने पुल

  • मंत्र विद्ध

  • स्वरूप और संवेदना

  • एक था शैलेन्द्र

कहानी संग्रह

  • देवताओं की मूर्तियां

  • खेल खिलौने

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  • काश, मैं राष्ट्रद्रोही होता

निधन

28 अक्टूबर 2013, सोमवार

राजेन्द्र यादव का नई दिल्ली में 28 अक्टूबर 2013 (मध्य रात्रि सोमवार) को निधन हो गया। वह 84 वर्ष के थे। राजेन्द्र यादव की अचानक तबियत खराब हो गई और उन्हें सांस लेने की तकलीफ होने लगी। उन्हें 11 बजे के बाद फौरन एक निजी अस्पताल ले जाया गया। लेकिन उन्होंने रास्ते में ही दम तोड़ दिया। राजेंद्र यादव हिन्दी साहित्य का एक मजबूत स्तंभ थे। राजेन्द्र यादव को हिन्दी साहित्य में 'नई कहानी' के दौर को गढ़ने वालों में से एक माना जाता है। उन्होंने कमलेश्वर और मोहन राकेश के साथ नई कहानी आंदोलन की शुरुआत की।

समाचार को विभिन्न स्रोतों पर पढ़ें

Rajendra Yadav

From Wikipedia, the free encyclopedia

Rajendra Yadav


*

Occupation

Novelist

Nationality

Indian

Citizenship

Indian

Rajendra Yadav (Hindi: राजेन्द्र यादव) (28 Aug 1929 – 28 Oct 2013) was a Hindi fiction writer, and a pioneer of the Hindi literary movement known as Nayi Kahani. He edits the literary magazine HANS, which was founded by Munshi Premchand in 1930 but ceased publication in 1953 – Yadav relaunched it on 31 July 1986, (Premchand's Birthday).[1][2]

His wife Mannu Bhandari is also a famous Hindi fiction writer.

Contents

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Biography[edit]

Rajendra Yadav was born in Agra, Uttar Pradesh on 28 August 1929 and died in New Delhi on 29 October 2013 night, around 12 o'clock in the mid night. According to one of his friends, former Chief Minister of Uttarakhand, BJP leader and noted author Dr. Ramesh Chandra Pokhariyal Nishank "He was not keeping well for long time, died in the mid of the night while being taken to the hospital."

He received his early education at Agra, and later also studied at Mawana, Meerut. He graduated in 1949, and later completed his MA in Hindi at Agra University in 1951.[3]

His first novel was Pret Bolte Hain (Ghosts Speak), published in 1951 and later retitled as Sara Akash (The Infinite Cosmos) in the 1960s. It was the first Hindi novel to try to shock orthodox Indian cultural traditions. It was adapted into a movie of the same title, Sara Akash, by Basu Chatterjee in 1969[4] and which along with Mrinal Sen's Bhuvan Shome, launched Parallel Cinema in Hindi.[5]

Ukhre Huey Log, ('The Rootless People) his next novel, depicts the trauma of a couple arising out of socio-economic condition which forced them to desert the conventional path – and, still they failed to acclimatise themselves to a corrupt and devilish world. This novel envisages "living in" concept for the first time.

He wrote two more novels, Kulta (The Wayward Wife), and Shaah aur Maat (Check and Mate). He also wrote several stories and translated into Hindi many works of Russian language writers like Turgenev, Chekhov, and Lermontov (A Hero of Our Times), as alsoAlbert Camus (The Outsider).

Ek Inch Muskaan (A Little Smile), which Rajendra Yadav and wife Mannu Bhandari wrote together, is a love tragedy of schizophrenicindividuals.

Besides being a writer, Rajendra Yadav was also a nominated a board member of Prasar Bharti in 1999–2001.

Renowned Hindi author Rajendra Yadav passed away in New Delhi on 28th of October, 2013. The 84-year-old breathed his last around 12 o'clock in the mid night. Rajendra Yadav, who was not keeping well for long time, died while being taken to the hospital.

[6]

Selected bibliography[edit]

  • Sara Akash, 1951.

  • Ukhre Huey Log, (The Rootless People)

  • Kulta (The Wayward Wife)

  • Shaah aur Maat (Check and Mate).

  • Strangers on the Roof, tr. by Ruth Vanita. 1994, Penguin, ISBN 0-14-024065-9.[7]

  • Ek Inch Muskaan (A Little Smile), with Manu Bhandari.

References[edit]

External links[edit]


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