THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Wednesday, October 9, 2013

अगर कांशीराम साहब अपना ऐतिहासिक रोल न अदा किये होते तो ! एच एल दुसाध

अगर कांशीराम साहब अपना ऐतिहासिक रोल न अदा  किये होते तो !


एच एल दुसाध

आज से लगभग पांच  दशक  पूर्व पुणे के इआरडीएल में सुख- शांति से नौकरी कर रहे मान्यवर कांशीराम  के जीवन में ,एक स्वाभिमानी दलित कर्मचारी के उत्पीडन की घटना से एक नाटकीय भावांतरण हुआ.जिस तरह राजसिक सुख-ऐश्वर्य के अभ्यस्त गौतम बुद्ध ने एक नाटकीय यात्रा के मध्य दुःख-दारिद्र का साक्षात् कर ,उसके दूरीकरण के उपायों की खोज के लिए गृह-त्याग किया ,कुछ वैसा ही साहेब कांशीराम ने किया.आम दलितों की तुलना में सुख- स्वाछंद का जीवन गुजारने वाले साहेब जब 'दूल्हे का सेहरा पहनने' के सपनो में विभोर थे तभी दलित कर्मचारी दिनाभाना के जीवन में वह घटना घटी जिसने साहेब को चिरकाल के लिए सांसारिक सुखों से दूर रहने की प्रतिज्ञा लेने के लिए विवश कर दिया.फिर तो दिनाभानों  के जीवन में बदलाव लाने के लिए उन्होंने देश के कोने-कोने तक फुले,शाहू जी,नारायण गुरु,बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर,पेरियार इत्यादि के समाज-परिवर्तनकामी विचारों तथा खुद की अनोखी परिकल्पना को पहुचाने का जो अक्लांत अभियान छेड़ा ,उससे जमाने  ने उन्हें 'सामाजिक परिवर्तन के अप्रतिम –नायक' के रूप में वरण किया.उसी बहुजन नायक का २००६ में आज के  दिन परिनिर्वाण हो गया.उनके मरणोपरांत जमाने ने उन्हें दूसरे आंबेडकर के रूप में सम्मान दिया.सवाल पैदा होता है अगर साहेब कांशीराम ने अपने अवदानों से बहुजन भारत को धन्य नहीं किया होता तो?

तब हज़ारों साल की दास जातियों में शासक बनने की महत्वाकांक्षा पैदा नहीं होती;लाखो-पढ़े लिखे नौकरीशुदा दलितों  में 'पे बैक टू डी सोसाइटी 'की भावना नहीं पनपती;दलित साहित्य में फुले-पेरियार-आंबेडकर की क्रांतिकारी चेतना का प्रतिबिम्बन नहीं होता;पहली लोकसभा के मुकाबले हाल के लोकसभा चुनाओं में पिछड़ी जाति सांसदों की संख्या में आश्चर्यजनक वृद्धि तथा सवर्ण सांसदों की संख्या में शोचनीय गिरावट नहीं परिलक्षित होती;किसी दलित पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी के रूप में देखना सपना होता;अधिकांश पार्टियों के राष्ट्रीय अध्यक्ष ब्राह्मण ही नज़र आते तथा विभिन्न सवर्णवादी पार्टियों में दलित-पिछडो की आज जैसी पूछ नहीं होती;लालू-मुलायम सहित अन्यान्य शूद्र नेताओं की राजनीतिक हैसियत आज जैसी नहीं होती; तब जातीय चेतना के राजनीतिकरण का मुकाबला धार्मिक –चेतना से करने के लिए संघ परिवार हिंदुत्व,हिन्दुइज्म या हिन्दू धर्म को कलंकित करने के लिए मजबूर नहीं होता और अवसरवाद का दामन थाम परस्पर विरोधी विचारधारा की पार्टियों के नेता अटल-मनमोहन की सरकारेन बनवाने के लिए आगे नहीं आते...   


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