THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Wednesday, October 9, 2013

डॉलर साधे कुछ न सधै

डॉलर साधे कुछ न सधै


इस समय पूरा देश 'एकै साधे, सब सधै' के अंदाज में डॉलर को साधने के अभियान में लगा हुआ है। लेकिन हमें अन्य विदेशी मुद्राओं के चढ़ते मूल्यों से भी मुतमइन होना चाहिए। भारत के अगस्त में पौंड सौ रुपये में, और यूरो छियासी रुपये, पचास पैसे में परिवर्तित होगा, इसकी कल्पना यूरोप के दिग्गज अर्थशास्त्रियों ने कुछेक हफ्ते पहले नहीं की थी। दुनियाभर में 'करेंसी वार' आरंभ है, इस पर पता नहीं क्यों अपने यहां बहस नहीं हो रही है?

इस समय पूरा देश डॉलर फोबिया से ग्रस्त है। देशभर में महंगाई से लेकर निवेश, निफ्टी, सेंसेक्स, शेयर बाजार तक में आई सुनामी के लिए डॉलर को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। रुपया हर रोज अवमूल्यन का अपना पिछला रिकार्ड तोड़ते हुए रसातल की ओर जा रहा है। चैनलों से लेकर सोशल मीडिया पर रुपये के अवमूल्यन से आतंकित समीक्षकों, राजनेताओं की प्रतिक्रियाओं को देखकर यही लग रहा है जैसे भारत का व्यापार सिर्फ डॉलर से चल रहा है। प्रधानमंत्री रुपये की हालत सुधरने का भरोसा देते हैं, और अगले दिन रुपया धड़ाम से गिरता नजर आता है।

'मनमोहनॉमिक्स' के बेअसर होने की कई वजहों में से एक यह भी है कि हम एक जटिल अर्थव्यवस्था में जी रहे हैं, जिसकी जमीनी हकीकत को समझने में कई बार हमारे रणनीतिकार सफल नहीं हो पाते। विविधताओं वाले देश के इस जटिल अर्थशास्त्र को क्या रिजर्व बैंक के नवनियुक्त गवर्नर रघुराम राजन समझने में सक्षम हैं? इस सवाल को 'क्रेडिबिलिटी क्रंच' नामक एक लेख के जरिये प्रधानमंत्री के पूर्व प्रेस सलाहकार संजय बारू ने उठाया है। रुपये की दुर्गति जैसे-जैसे होगी, प्रधानमंत्री की 'यही है राइट च्वाइस बेबी' की क्षमता पर बहस होनी तय मानिये। प्रश्न यह है कि रिजर्व बैंक ने मौद्रिक नियंत्रण के उपाय से पहले निवेशकों को भरोसे में लेना जरूरी क्यों नहीं समझा? यदि इस पहलू पर ध्यान दिया गया होता तो कम से कम शेयर बाजार और निवेशकों के बीच अफरा-तफरी नहीं मचती।

भारत में आर्थिक बदहाली सिर्फ 1991 में नहीं आई थी। 1966 में तो और भी बुरा हाल था। रुपये की विनिमय दर इतनी नीचे गिर गयी थी कि सहायता करने वाले देशों ने दान देने तक से मना कर दिया। शर्त यही रखी गई कि पहले प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) के दरवाजे खोलो, फिर हम मदद करते हैं। 1965 में पाकिस्तान से युद्ध हुआ था, और इसके साल भर बाद देश सूखे की चपेट में था। मंडियों में अनाज नहीं, खेतों में साग-सब्जियां नहीं। 1965-66 में महंगाई चरम पर थी। दो दशक बाद भी भारत की अर्थव्यवस्था पटरी पर नहीं थी। 1989 आते-आते रुपये की औकात ब्रिटेन के तीन पैसे ( ब्रिटिश पेंस) के बराबर रह गई थी। यह सही है कि 1991 में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से 22 अरब डॉलर का आपात लोन लेने के लिए देश को 67 टन ( रिजर्व) संचित सोना गिरवी रखना पड़ा था। उस समय हमारे पास मात्र साठ दिन तक आयात के लिए विदेशी मुद्रा भंडार बचा था। लेकिन जरूरी नहीं कि 1966 और 1991 के दु:स्वप्न को लेकर हम दहशत में जीएं। इतिहास सिर्फ दुहराने की प्रक्रिया से नहीं गुजरता, इतिहास का पुनर्लेखन भी होता है।

दावोस में विश्व आर्थिक फोरम की बैठक में हर बार हमारे नेता, आर्थिक रणनीतिकार, उद्योगपति पधारते हैं। इस साल जनवरी में हुई दावोस बैठक में चीन और जापान ने करेंसी के अवमूल्यन के बहाने जी-20 में हो रही कूटनीति का कड़ा प्रतिरोध किया था। दावोस बैठक से दो हफ्ते पहले 14 जनवरी 2013 को बराक ओबामा ने चीनी मुद्रा 'युआन' के बारे में कहा था कि 2007 के बाद से चीनी मुद्रा का अधिमूल्यन (एप्रीशिएशन) हो रहा है। ओबामा ने बयान दिया कि युआन, डॉलर के मुकाबले पिछले पांच वर्षों से सत्रह प्रतिशत की मजबूती के साथ खड़ा है। ओबामा ऐसा वक्तव्य देकर चीन को तुष्ट कर रहे थे, ताकि जी-20 में मुद्रा अवमूल्यन की साजिशों के विरुद्ध कोई मोर्चा न खड़ा हो जाए।

जापान ने येन का अवमूल्यन रोकने के लिए सन् 2000  में पहली बार परिमाणात्मक सुविधा कही जाने वाली 'क्वान्टिटेटिव इजिंग'(क्यू.ई.) प्रणाली को लागू किया। बैंक ऑफ जापान ने इसके साल भर बाद अल्पावधि ब्याज दर वाली सुविधा के साथ 'क्यू.ई.' कार्यक्रम को चलाया, और देखते-देखते उस देश में सरकारी बांडों में निवेश करने वालों की बाढ़-सी आ गई। हम भले दुनिया भर में आये आर्थिक भूचाल के बहाने महंगाई, बेरोजगारी को रोते रहें, लेकिन 2007 से 2012 के बीच जो कुछ बर्बादी हुई, उसके 'डैमेज कंट्रोल' के लिए अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोजोन के देशों ने जापान की कापी की और 'क्यू.ई. प्रणाली' को लागू किया। अमेरिका में 'क्यू.ई.' कार्यक्रम लगातार सफल हुआ है। यही कारण है कि वहां 13 सितंबर 2012 को 'क्यूई-3′ जारी करने की घोषणा हुई। नौ महीने बाद, अमेरिका ने 61.7 अरब डॉलर के सूचीबद्ध बांड, म्यूचुअल फंड, 'एक्सचेंज ट्रेडेड फंड' की रिकार्ड बिक्री जून 2013 में की है। यह है, 'क्यू.ई.' कार्यक्रम का कमाल! कदाचित, नकल करने के मामले में दुनिया में हम नंबर वन कहे जाते हैं, तो फिर क्यों 'क्यू.ई.' जैसे आर्थिक सुधार कार्यक्रम को हम अनदेखा कर गये? रिजर्व बैंक 'सब कुछ लुटाके होश' में अब आया है, और जर्मनी की 'डॉयचे एसेट मैनेजमेंट' के सहयोग से बांड बेचने पर विशेष ध्यान दे रहा है।

चीनी मुद्रा युआन डॉलर के मुकाबले यदि सत्रह प्रतिशत मजबूती के साथ खड़ा है तो उसके पीछे उसकी निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था एक बड़ी वजह रही है। भारत को निर्यात के मामले में चीन के नक्शे-कदम पर चलना चाहिए, इसके लिए देश के 'मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर' को मजबूत करने की जरूरत है। जुलाई 2013 में भारत का निर्यात 25.8 अरब डॉलर था। पिछले साल इसी अवधि में 23.1 अरब डॉलर का निर्यात हुआ था। यानी, भारत ने साल भर के निर्यात में 11.6 प्रतिशत की बढ़ोतरी की है। डॉलर का बहुत मजबूत होना यदि हमारे लिए घातक है तो उसका कमजोर होना भी हमारे लिए नुकसान का कारण बनता है। 2007 के आखिरी महीनों में डॉलर 39 रुपये के बराबर हो गया था। इससे हमारे यहां के निर्यातक, आईटी और बीपीओ वाले कराहने लगे थे।

चीन अब भी विदेशी मुद्रा भंडार के मामले में टॉप पर है। जापान, दूसरे नंबर पर आता है। यह दिलचस्प है कि विदेशी मुद्रा भंडार वाले टॉप टेन देशों में एशिया के सात देश हैं। इनमें सऊदी अरब (तीसरे), ताइवान (छठे), दक्षिण कोरिया (आठवें), हांगकांग (नौवें) और दसवें स्थान पर भारत है। पूरी दुनिया में डॉलर की दहशत फैलाने वाला अमेरिका सोलहवें स्थान पर है। इसलिए, विदेशी मुद्रा भंडार को लेकर जरूरत से ज़्यादा विलाप करने की आवश्यकता नहीं है। ईरान से पेट्रोलियम हम रुपये में खरीद रहे हैं। ईरान से हम तेल का आयात क्यों नहीं बढाते? हम कीमतों में कोई ग्यारह प्रतिशत की बचत ईरान से तेल आयात के कारण कर रहे हैं। इस समय देश में अन्न का पर्याप्त भंडार है। महंगाई बढ़ाने के वास्ते मात्र डॉलर नहीं, देश में खरपतवार की तरह फैले जमाखोर, बिचौलिये व दलाल ज़्यादा जिम्मेदार हैं। क्या सरकार ने एक भी जमाखोर को जेल में डाला है?

(लेखक ईयू-एशिया न्यूज के नयी दिल्ली स्थित संपादक हैं)

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