THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Tuesday, October 22, 2013

दीदी के अखंड चंडीपाठ का असर होने लगा, माकपाई कामरेडों को अब धर्म कर्म की इजाजत


दीदी के अखंड चंडीपाठ का असर होने लगा, माकपाई कामरेडों को अब धर्म कर्म की इजाजत


एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास​



आखिरकार दीदी के अखंड चंडीपाठ का असर होने लगा है, माकपाई कामरेडों को अब धर्म कर्म की इजाजत देदी गयी है। मजे की बात यह है कि यह बंगाल राज्य कमेटी का फैसला नहीं है। पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने धर्म कर्म आधारित राजनीति की परंपरा पर अपनी मुहर लगा दी है।अब तक कामरेडों के लिए धार्मिक आचरण और आस्था के सार्वजनिक प्रदर्शन वर्जनीय था। असल में बंगाल में और बाकी भारत में राजनीति के धार्मिक तेवर और धर्म व राजनीति के घालमेल को वामपंथी सिरे से खारिज करते रहे हैं। लेकिन पार्टी पर निरंतर जाति वर्चस्व बनाये रखने का आरोप लगता रहा है।पार्टी नेतृत्व में अनुसूचितों, हिंदीभाषियों और आदिवासियों से लेकर अल्पसंख्यकों को समुचित प्रतिनिधित्व न देने से उत्तर भारत में वामपंथियों का सफाया हो चुका है।किसान सभा और महिला ,छात्र,युवा और मजदूर संगठन कागजी हो चुके हैं।


बंगाल में वाम शासन के अवसान के बाद सांगठनिक कवायद में रज्जाक मोल्ला जैसे लोग सभी समुदायों को नेतृत्व में प्रतिनिधित्व देने और जाति वर्चस्व तोड़ने की जोर लगाकर मांग करते रहे हैं,जिनकी कतई सुनवाई हुई नहीं है।


माकपा की राजनीति बंगाल और केरल लाइनों पर चलती है और उनकी गाड़ी इस पटरी से बाहर निकलती ही नहीं है।


माकपाई वर्चस्ववादी राजनीति की वजह से बंगाल में ममता बनर्जी को तेजी से अल्पसंख्यकों, अनुसूचितों,पिछड़ों और किसानों में आधार बनाने का मौका मिला और धर्म कर्म के संबंध में नास्तिकता और पाखंड के तहत संघियों, गांधीवादियों और कांग्रेस की निंदा करने वाली की सारी राजनीति ब्राह्मणवादी रही है।


इस सत्य को स्वीकार किये बिना, ममता बनर्जी की जमीनी राजनीति और अपनी वर्चस्ववादी भूलों का आकलन किये बिना हालिया दुर्गोत्सव में दीदी के अखंड चंडीपाठ से अल्पसंख्यकों, अनुसूचितों और पिछड़ों के अकिरिक्त सवर्ण हिंदुओं में निराधार और अप्रासंगिक हो जाने के कारण माकपा ने धर्म कर्म के प्रति मार्क्सीय बुनियादी नीतियों का रातोंरात परित्याग कर दिया।


अब माकपा कर्मियों को पूजापाठ की आजादी है।

वे गया जाकर पितरों को पिंडदान कर सकते हैं।

मंदिरों,मस्जिदों और गिरजाघरों में जाकर प्रार्थना में शामिल हो सकते हैं।

पूजा पाठ हवन यज्ञ कर सकते हैं । प्रवचन सुन सकते हैं।

पुरोहिती के लिए जनेऊ दारण कर सकते हैं।

विवाह धार्मिक रीति रिवाज के मुताबिक कर सकते हैं।

कामरेडों को अब हज पर जाने की इजाजत है।



याद करिए जब सन् 2006 में वरिष्ठ माकपा नेता और पश्चिम बंगाल के खेल व परिवहन मंत्री सुभाष चक्रवर्ती ने बीरभूम जिले के मशहूर तारापीठ मंदिर में पूजा-अर्चना की और मंदिर से बाहर आकर कहा, 'मैं पहले हिन्दू हूं, फिर ब्राह्मण और तब कम्युनिस्ट' तब इस घटना के बाद, हिन्दू धर्म के विरुद्ध हमेशा षड्यंत्र रचने वाली भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्‍सवादी) के अन्दर खलबली मच गई। सबसे तीव्र प्रतिक्रिया दी पार्टी के वरिष्ठ नेता व पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने। उन्होंने तो यहां तक कह दिया, 'सुभाष चक्रवर्ती पागल हैं।' इसके प्रत्युत्तर में सुभाष ने सटीक जवाब दिया और सबको निरुत्तर करते हुए उन्होंने वामपंथियों से अनेक सवालों के जवाब मांगे। उन्होंने कहा कि जब मुसलमानों के धार्मिक स्थल अजमेर शरीफ की दरगाह पर गया तब कोई आपत्ति क्यों नहीं की गई? उन्होंने यह भी पूछा कि जब पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु इस्राइल गए थे और वहां के धार्मिक स्थलों पर गए तब वामपंथियों ने क्यों आपत्ति प्रगट नहीं की।


डॉ. के एस मनोज केरल से माकपा सांसद रहे हैं। उन्होंने पिछले दिनों पार्टी छोडऩे का ऐलान किया। इसकी वजह बताते हुए उन्होंने लिखा है कि पार्टी ने अपने दुरुस्तीकरण संबंधी दस्तावेज में सदस्यों के लिए यह निर्देश दिया है कि उन्हें धार्मिक समारोहों में भाग नहीं लेना चाहिए। चूंकि वह पक्के धार्मिक हैं, ऐसे में, यह निर्देश उनकी आस्था के खिलाफ जाता है। इसलिए उन्होंने पार्टी छोडऩे का फैसला किया।


साम्यवाद के प्रवर्तक कार्ल मार्क्‍स ने बड़े जोर देकर कहा था, 'धर्म लोगों के लिए अफीम के समान है (Religion as the opium of the people)। मा‌र्क्स ने यह भी कहा था, 'मजहब को न केवल ठुकराना चाहिए, बल्कि इसका तिरस्कार भी होना चाहिए।' लेकिन मार्क्‍स गलत साबित हो रहे है। एक-एक करके उनके सारे विचार ध्‍वस्‍त हो रहे है। दो वर्ष पहले चीनी कम्‍युनिस्‍ट पार्टी ने अपने संविधान में बदलाव करते हुए धर्म को मान्‍यता दी। अब माकपा के महासचिव प्रकाश कारत मार्क्‍स का हवाला देते हुए कह रहे हैं, 'धर्म उत्पीडि़त प्राणी की आह है, हृदयहीन दुनिया का हृदय है, आत्माहीन स्थिति की आत्मा है।' कारत बैकफुट पर आ रहे हैं, 'कौन कहता है कि माकपा धर्म के खिलाफ है। इसके बजाय हम धर्म से जुडे पाखंड और सांप्रदायिकता के विरोधी हैं।'



मार्क्‍सवाद और धर्म के बीच संबंध' पर बहस जोरों पर है। पिछले दिनों केरल से माकपा के पूर्व सासद डा. केएस मनोज ने अपनी आस्था व उपासना के अधिकार की रक्षा का प्रश्‍न उठाते हुए पार्टी से त्यागपत्र दे दिया। डा. केएस मनोज को 2004 में माकपा ने तब लोकसभा का टिकट दिया था, जब वे केरल लैटिन कैथोलिक एसोसिएशन के अध्यक्ष थे। लैटिन कैथोलिक के करीब बीस लाख अनुयायियों में डा. मनोज का अच्छा प्रभाव है। गौरतलब है कि माकपा की केंद्रीय कमेटी ने एक दस्तावेज में स्वीकार किया है कि पार्टी सदस्यों को धार्मिक आचारों को त्यागना चाहिए।


बकौल कामरेड प्रकाश कारत मार्क्‍सवादी नास्तिक होते हैं यानी वे किसी धर्म में विश्वास नहीं करते। बहरहाल, मार्क्‍सवादी धर्म के उत्स को और समाज में उसकी भूमिका को समझते हैं। जैसा कि मार्क्‍स ने कहा था, धर्म उत्पीडि़त प्राणी की आह है, हृदयहीन दुनिया का हृदय है, आत्माहीन स्थिति की आत्मा है। इसलिए मार्क्‍सवाद धर्म पर हमला नहीं करता, लेकिन उन सामाजिक परिस्थितियों पर जरूर हमला करता है, जो उसे उत्पीडि़त प्राणी की आह बनाती हैं। लेनिन ने कहा था कि धर्म के प्रति रुख वर्ग संघर्ष की ठोस परिस्थितियों से तय होता है। मजदूर वर्ग की पार्टी की प्राथमिकता उत्पीडऩकारी पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ वर्गीय संघर्ष में मजदूरों को एकजुट करना है, भले ही वे धर्म में विश्वास करते हों या नहीं।


इसलिए, माकपा जहां भौतिकवादी दृष्टिकोण को आधार बनाती है, वहीं धर्म में विश्वास करने वाले लोगों के पार्टी में शामिल होने पर रोक नहीं लगाती। सदस्य बनने की एक ही शर्त है कि संबंधित व्यक्ति पार्टी के कार्यक्रम व संविधान को स्वीकार करता हो और पार्टी की किसी इकाई के अंतर्गत पार्टीगत अनुशासन के तहत काम करने के लिए तैयार हो। मौजूदा परिस्थितियों में माकपा धर्म के खिलाफ नहीं, बल्कि धार्मिक पहचान पर आधारित सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ रही है।


পৈতে থেকে পিণ্ডদান মেনে নিল সিপিএম

কমরেড, যদি 'মায়ের পায়ে জবা হয়ে' ফুটতে আপনার মন চায়, আপত্তি করবে না সিপিএম৷ মনসার থানে দুধকলা দিন অথবা পিরের দরগায় সিন্নি--আপনি আর অচ্ছুত নন৷ পৈতে ঝুলিয়ে গায়ত্রী মন্ত্র জপ অথবা গয়ায় পিণ্ডদান--কিছুতেই আপত্তি নেই মার্ক্সবাদী কমিউনিস্ট পার্টির৷ শারদোত্‍সবে তৃণমূলের বোলবোলাও দেখে মার্ক্সবাদের কিঞ্চিত্‍ বঙ্গীকরণ হচ্ছে৷ কেউ আগেই বুঝেছেন, কেউ এখন বুঝছেন, দ্বন্দ্বমূলক বস্ত্তবাদ যতই 'অভ্রান্ত' হোক, মনসা-শীতলার দাপটও কম নয়৷ বিশেষ করে চাঁদ সদাগরের বাংলায়৷ ধর্ম 'আফিং'৷ কিন্ত্ত সেটা চেখেও দেখতে চান বহু কমরেড৷ শুধু চেখে দেখাই বা কেন, অনেক কমরেড বুঁদও হয়ে থাকেন৷ কিন্ত্ত মুখে বলতে বাধো বাধো লাগে৷ সিপিএম নেতারা তাই সিদ্ধান্ত নিয়েছেন, কারও ব্যক্তিগত ধর্মাচরণে দল বাধা দেবে না৷ মানে, 'পেটে খিদে মুখে লাজ' দশা থেকে রেডকার্ডধারী সদস্যরা মুক্তি পাচ্ছেন৷ তিনি ধর্মে থাকতে পারেন, জিরাফেও৷ তা হলে কি ধর্মের গা থেকে আফিংয়ের নামাবলি সরে যাচ্ছে? দলের একাংশ বলছেন, পার্টিকর্মীরা যেদিন বুঝবেন, সর্বশক্তিমান বলে কিছু হয় না, সেদিন আপনা থেকেই ধর্মাচরণে ভাটা পড়বে৷ কিন্ত্ত সেটা কবে বুঝবেন? আগামী পাঁচ হাজার বছরেও সে সম্ভাবনা নেই৷ তাই শীর্ষ নেতৃত্বের সিদ্ধান্ত, রেড কার্ডধারীরা মন্দির-মসজিদ-গির্জা-গুরুদ্বারে যেতে পারেন৷ অঞ্জলি দিতেও বাধা নেই৷ পার্টি আর কাউকে শাস্তি দেবে না৷




সিপিএমের রাজ্য সম্পাদকমণ্ডলী ও কেন্দ্রীয় কমিটির সদস্য গৌতম দেবের বক্তব্য, 'কেরলে আমাদের পার্টির লোকেরা চার্চে যায়৷ এ রাজ্যেও কেউ চাইলে পুজো করতেই পারেন৷ ব্যক্তির ধর্মাচরণে কোনও বাধা নেই৷' সেলিম বলেছেন, 'পুজোআচ্চা নিয়ে আমাদের পার্টিতে কোনও ডু'স অ্যান্ড ডোন্টস নেই৷ পুজো করলে বা মন্দির-মসজিদ-গির্জায় উপাসনা করলে সদস্যপদ চলে যাবে, এমন নয়৷' বেচারা সুভাষ চক্রবর্তী৷ এবং বিনয় চৌধুরী৷ এবং শ্রীহীর ভট্টাচার্য৷ রেজ্জাক মোল্লাকে এখানে রাখা যাচ্ছে না৷ কারণ তাঁর ঘোষণাই ছিল, মার্ক্সের চেয়ে মহম্মদ বড়৷ অতএব 'চললাম হজে৷' দল তাঁর টিকিও ছুঁতে পারেনি৷ কিন্ত্ত সুভাষ চক্রবর্তী? তারাপীঠ মন্দিরে পুজো দিয়ে তিনি মা বলে হাঁক পেড়েছিলেন৷ তাতে জ্যোতিবাবুর কী রাগ! বলেছিলেন, 'ওর মাথা খারাপ হয়েছে৷ ওকে মৃত্যুভয় ধরেছে৷' সুভাষবাবু অবশ্য পাল্টা প্রশ্ন করেননি, 'আপনিও তো রামকৃষ্ণ মিশনে যান৷' বিনয় চৌধুরী কী করলেন? কিছুই করেননি৷ স্ত্রীর সঙ্গে তিরুপতি মন্দিরে গিয়েছিলেন৷ ভিতরে ঢোকেননি৷ আশপাশে ঘুরঘুর করছিলেন৷ তাতেই বোধহয় বিপ্লব অনেকটা পিছিয়ে যায়৷ দলের কন্ট্রোল কমিশন থেকে চিঠি আসে, 'আপনার এহেন আচরণের কারণ ব্যাখ্যা করুন৷' আর শ্রীহীরবাবু? পাড়ার পুজো মণ্ডপে একটু চণ্ডীপাঠ করেছিলেন৷ 'হাউ টু বি আ গুড কমিউনিস্ট' বইয়ে চণ্ডীপাঠের বিধান নেই৷ তাই শ্রীহীরবাবুকে ডেকে সতর্ক করে দেয় দল৷ তাতে কি শ্রীহীরবাবুর চণ্ডীপাঠের ইচ্ছে চিরতরে ঘুচেছে? তিনিই জানেন৷




কেন এই 'পরিবর্তন'? সিপিএম সূত্রের খবর, এতে জনসংযোগ বাড়ে৷ তার সঙ্গে ভোটও বাড়ে৷ তৃণমূলের নেতা-মন্ত্রীরা কিন্ত্ত বহু দিন ধরেই নানা পুজোর পাণ্ডা৷ সুব্রতের পুজো, পার্থর পুজো, অরূপের পুজো, ববির পুজো আছে৷ কিন্ত্ত জ্যোতির পুজো, প্রমোদের পুজো, বুদ্ধর পুজো কোনও কালে ছিল না, এখনও নেই৷ না-থাকাতে আখেরে লাভ কিছু হয়নি৷ মণ্ডপের সামনে 'কমিউনিস্ট ম্যানিফেস্টো' দু'টাকায় বেচে বিপ্লবের পথ বিশেষ মসৃণ হয়নি৷ তা ছাড়া বিপ্লব চায়ই বা কে? সবাই চায় ভোট৷ পুজোর সঙ্গে যুক্ত থাকলে সেই ভোটের বাধা অনেকটাই দূর হয়৷ সিপিএমের গঠনতন্ত্রে অবশ্য পুজোআচ্চায় সরাসরি কোনও বিধিনিষেধ নেই৷ যেহেতু কমিউনিস্ট পার্টি 'নিরীশ্বরবাদী' তাই পুজোপার্বণ এড়িয়েই চলত সিপিএম৷ পুজোর স্টলে অথবা ঈদের কমিটিতে থাকলে নেতারা অন্তত প্রকাশ্যে ফুল-বেলপাতা হাতে 'যা দেবী সর্বভূতেষু' মন্ত্র আওড়াননি৷ বিশ্বাসে, নাকি ভয়ে আওড়াননি সে কথা অবশ্য আলাদা৷ কিন্ত্ত সে বাধা ঘুচছে৷ কালীপুজোয় পাঁঠাবলি দিলেও সম্ভবত শো-কজ চিঠি যাবে না৷ এই সিদ্ধান্তে খুশি সুভাষ-জায়া রমলা৷ তিনি বলেন,' উনি (সুভাষ চক্রবর্তী) বরাবরই বলতেন, উত্‍সবেও মানুষের পাশে থাকতে হবে৷ পুজোআচ্চায় বিধিনিষেধ উঠে গেলে ভালোই হবে৷' তবে মুখ খুলতে চাননি শ্রীহীরবাবু৷ লোকসভার প্রাক্তন স্পিকার সোমনাথ চট্টোপাধ্যায়ের কথায়, 'ভুল স্বীকার করে পরিবর্তন করলে ভালো৷ ঈদ-দুর্গাপুজোকে কেবলমাত্র ধর্মের গণ্ডিতে বাঁধা যায় না৷ এই সব উত্‍সবের সামাজিক মূল্য অসীম৷' কেরলে দলের প্রাক্তন এমপি কেএস মনোজ গোঁড়ামি ছাড়তে দলের সাধারণ সম্পাদক প্রকাশ কারাটকে খোলা চিঠি দিয়েছিলেন৷ কারাট পার্টির মুখপত্র পিপলস ডেমোক্র্যাসিতে লেখেন, 'ব্যক্তিগত ধর্মাচরণে আপত্তি নেই৷ তবে আমরা কখনওই এ সবে উত্‍সাহ দেব না৷' কিন্ত্ত উত্‍সাহ দেওয়ার সুরই তো রাজ্য নেতাদের মুখে৷ ভোট কুড়োতে তাঁদের ভরসা সেই 'আফিং'ই৷




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